दशहरा विशेष
डॉ. शिखा अग्रवाल
अट्टहास कर दस शीशों से,
फिर से रावण खड़ा हो गया,
मारो जितना मार सको तुम,
सदा यही ललकार दे गया।।
हंसता हम पर मेघनाद संग,
क्यों सदियों की रीत निभाना,
हम को मारे क्या होता है,
ये तो है पुतलों को जलाना।।
इतने रावण घूम रहे हैं,
गली, मोहल्ले, घर के अंगना
कैसे पहचानोगे इनको,
ये हैं स्वर्ण हिरण सी छलना।।
रावण भीतर बैठा खुद में,
क्यों खुद के मन को न जाना,
जिसको बाहर तीर से मारा,
वो तो केवल आत्मवंचना।।
रावण केवल नाम नहीं है,
ये तो दुर्भावों का बाना,
जब इनको मारेंगे दिल से,
तब होगा रावण का मरना।।
(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, सुजानगढ़ (चूरू) में सह आचार्य हैं)
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