लघु कथा
एकता श्रीवास्तव ‘यूनिटी’ इंदौर
आज दिनभर से ही बहुत थकी हुई थी वो, सुबह से काम अधिक था। आज घर में ससुर जी का श्राद्ध था, ब्राह्मण भोज आयोजित था। कुछ ख़ास रिश्तेदार भी आमंत्रित थे। किन्तु सारा भोजन चूंकि ब्राह्मण आकर जीमेंगे तो किसी कामवाली का भी सहयोग नहीं लिया जा सकता था। सुंदरलाल जी सुबह से व्यस्त थे और बार -2 किचन में आकर रामदेवी को हिदायत देकर जा रहे थे कि 10 बजे तक सब तैयार कर लेना; नहीं तो मुहूर्त निकल जाएगा, बहुत ही लाड़ले और एकलौते बेटे जो थे अपने पिताजी के। रामदेवी लगी रही काम पर और बीच-2 में खो जाती अतीत की यादों में……
कि कैसे ब्याह कर आयी थी 35 साल पहले!
कितना रुतवा था उसके ससुर का! हमेशा उसे बहु कम; बेटी ज्यादा माना। किन्तु उसके पति ने उसे कभी नहीं चाहा। हमेशा, निर्धन घर से आई है, कोई औलाद नहीं हो पा रही है तेरे का ताना मारा करते। कभी उससे प्रेम नहीं किया और न ही उसे वो इज़्ज़त ही दी जिसकी की वो हक़दार थी।
एक दिन अचानक उसकी सास सीढ़ियों से फिसल गई। कूल्हे की हड्डी टूट गई और दिमाग पर गहरी चोटें आईं। तब से कभी ख़ुद से उठ नहीं पायी। 20 वर्षों से रामदेवी ही उनकी जी जान से सेवा कर रही है।
रामदेवी की भी उम्र बढ़ती जा रही है। किन्तु किसी की सेवा नहीं लेती। सारे घर का काम, ख़ुद का काम और अपने पति और सास का ख़याल खुद ही रखती आयी है। कभी कोई सुख नहीं मिला। हमेशा अपनी औलाद न होने का दंश झेलती आयी थी। पति, समाज़, सभी के तानों से उसका दिल छलनी था। दिल भर आता है जब भी सोचती है कि मेरे मरे पीछे कौन देखभाल करेगा पति की और इस घर की। कई बार बच्चा गोद लेने की सोची। किन्तु सुंदरलाल जी ने साफ इंकार कर दिया।
भोजन तैयार था। सभी जीमने आ चुके थे। सभी को हर बार की तरह इस बार भी भोजन बहुत स्वादिष्ट लगा। सबको भोजन करा के रामदेवी ने भोजन किया और अपने कमरे में आराम करने चली गयी।
शाम हो चुकी थी। जब चाय के वक़्त पर सुंदरलाल जी को चाय नहीं मिली तब उन्होंने रामदेवी को पुकारा। 2-4 आवाज़ लगाने पर भी जब कोई जवाब नहीं आया तो ख़ुद उठकर उनके कमरे तक गए ….. वहां पहुंच कर देखा कि रामदेवी निष्प्राण पड़ी हुई है। कोई हलचल नहीं। अचानक से ऐसा हो जायेगा का ज़रा भी अंदेशा नही था उन्हें। विस्मित भाव लिए तुरंत अपनी मां के कमरे में गए तो देखा मां भी जीवित नहीं थी।
हे प्रभु! ये क्या हो गया!! आज अचानक से!!! मेरी मां और पत्नी दोनों काल के गाल में कैसे समा गयीं।
तभी उन्हें आभास हुआ कि कोई दिव्य आत्मा उनके समीप आकर बोल रही है कि तूने जीते जी कभी भी अपनी बीबी को वो प्यार और इज़्ज़त नहीं दी जिसकी वो हक़दार थी, हमेशा अपने ही दम्भ और घमंड में रहा तू। लेकर जा रहा हूं मैं अपने साथ दोनों को। अब वो मेरे पास आ चुकी हैं। मेरी सेवा करने, तू रह हमेशा की तरह अकेला; जैसे तू रहना चाहता था।
और वो दिव्य आत्मा अपने साथ दोनों आत्माओं को लेकर चली गयी। सुंदरलाल जी तीनों को एकटक देखते ही रह गए।
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