राजस्थान में बच्चों की सुरक्षा पर संकट, बाल संरक्षण आयोग और किशोर न्याय बोर्ड में पद खाली | राजस्थान की शर्मनाक सच्चाई, कब जागेगी सरकार

जयपुर 

राजस्थान बाल संरक्षण आयोग (Rajasthan Child Protection Commission), जो बच्चों के अधिकारों और उनकी सुरक्षा का सबसे अहम निकाय है, बीते 12-13 महीनों से बिना अध्यक्ष के कार्य कर रहा है। यह स्थिति तब है जब बाल अपराध, यौन उत्पीड़न और बलात्कार जैसी घटनाओं में निरंतर वृद्धि हो रही है। सरकार ने इस पद के लिए आवेदन तो आमंत्रित किए, लेकिन अब तक नियुक्ति नहीं की गई। यहां तक कि राज्य स्तरीय चयन समिति तक का गठन नहीं किया गया है। कार्यवाहक अध्यक्ष के कार्यकाल को ही नियमों के खिलाफ जाकर लगातार बढ़ाया जा रहा है। सरकार की बेरुखी बच्चों के अधिकारों की अनदेखी कर रही है।

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एडवोकेट राजेन्द्र सोनी ने इसे लेकर सरकार को विधिक नोटिस दिया है और कहा है कि वह अब इस मामले में जनहित याचिका दायर करेंगे। डोनी ने कहा कि राजस्थान में बच्चों के प्रति यौन उत्पीड़न और बलात्कार की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। इस बीच बाल संरक्षण आयोग के मौजूदा सदस्यगण और अधिकारी अपने कर्तव्यों का पालन करने में असफल रहे हैं। आयोग की वेबसाइट तक अपडेट नहीं है, जिससे पीड़ितों को मदद मांगने में भी कठिनाई हो रही है। उन्होंने कहा कि सरकार की उदासीनता के चलते यह निकाय मात्र कागज़ी औपचारिकता बनकर रह गया है।

चयन समिति तक का गठन नहीं हुआ
राजस्थान के कई जिलों में बाल कल्याण समितियों और किशोर न्याय बोर्ड के सदस्यों के पद लंबे समय से रिक्त हैं। पूर्व सदस्य कार्यवाहक के रूप में कार्य कर रहे हैं, लेकिन नियुक्ति प्रक्रिया ठप पड़ी है। आवेदन मांगे हुए दो वर्ष से अधिक समय बीत गया, लेकिन राज्य स्तरीय चयन समिति तक का गठन नहीं हुआ है।

9 साल बाद भी किशोर न्याय अधिनियम के नियम तक नहीं बने
किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015 लागू हुए 9 साल हो गए हैं, लेकिन राजस्थान सरकार ने अब तक इसके लिए आवश्यक नियम तक नहीं बनाए। पोक्सो एक्ट, जेजे एक्ट और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विभागों पर कोई बैठक तक नहीं हो रही है। यह लापरवाही बच्चों के अधिकारों की घोर उपेक्षा को दर्शाती है।

बार-बार याद दिलाने के बावजूद कोई कदम नहीं उठाया गया
बच्चों की सुरक्षा और अधिकारों को लेकर सरकार को कई बार ज्ञापन और प्रार्थना पत्र भेजे जा चुके हैं। बावजूद इसके, सरकार ने अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया। यह स्थिति न्याय के प्रति सरकार की लापरवाही और उदासीनता को उजागर करती है। सरकार की उदासीनता का खामियाजा मासूमों को भुगतना पड़ रहा है। यह मुद्दा सिर्फ आंकड़ों का नहीं, बल्कि मासूमों के जीवन और भविष्य का है। सरकार की निष्क्रियता बच्चों के अधिकारों पर कुठाराघात है।

जनता को जवाब चाहिए
बच्चों की सुरक्षा और अधिकारों को लेकर सरकार की इस बेरुखी का जवाब अब जनता को चाहिए। क्या मासूमों की चीखें और उनके अधिकार सरकार तक कभी पहुंच पाएंगे? या फिर यह सिस्टम हमेशा की तरह सोया रहेगा?

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