इंसाफ की राह में 5 हफ्तों की देरी ने बढ़ा दी पीड़ा | नाबालिग पीड़िता के गर्भ को रोकने में भ्रम और लापरवाही, 11 सप्ताह का गर्भ बढ़कर 16-17 सप्ताह तक पहुंच गया | हाईकोर्ट ने दिखाई संवेदनशीलता, अब दिए ये आदेश

जोधपुर 

राजस्थान (Rajasthan) के डीडवाना-कुचामन क्षेत्र में नाबालिग बालिका के साथ हुए दुष्कर्म के मामले में कानूनी प्रोसेस और संवेदनशीलता की कमी ने पीड़िता की पीड़ा और बढ़ा दी। परिवार ने गर्भपात की अनुमति के लिए महीनों तक भटकते हुए राहत की उम्मीद की, लेकिन देर से की गई मेडिकल रिपोर्ट और प्रक्रिया में हुई देरी के कारण 11 सप्ताह का गर्भ बढ़कर 16-17 सप्ताह तक पहुँच गया।

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यह पूरा मामला अब राजस्थान उच्च न्यायालय (Rajasthan High Court), जोधपुर में सुना गया, जहां न्यायालय ने संवेदनशील और मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए उम्मेद हॉस्पिटल (वुमेन विंग) के अधीक्षक को नियम अनुसार मेडिकल बोर्ड गठित कर गर्भपात करवाने के निर्देश दिए।

मामले की पृष्ठभूमि

पीड़िता के पिता ने पुलिस थाना भाडू, जिला डीडवाना-कुचामन में दुष्कर्म की रिपोर्ट दर्ज करवाई थी। आरोपी को पोक्सो एक्ट (POCSO Act) के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। इसी बीच पता चला कि पीड़िता गर्भवती हो चुकी है।

परिवार ने गर्भपात करवाने का प्रयास किया, लेकिन कानूनी जानकारी की कमी और सलाह न मिलने के कारण वे इधर-उधर भटकते रहे। बाद में अधिवक्ता की मदद से पोक्सो न्यायालय प्रथम, मेड़ता में गर्भपात की अनुमति के लिए प्रार्थना पत्र दाखिल किया गया। तब गर्भ सिर्फ 11 सप्ताह का था।

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यहां हुई सबसे बड़ी देरी

पोक्सो न्यायालय ने निर्णय से पहले मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट मंगवाई। रिपोर्ट तैयार होने में लगभग 4 सप्ताह की देरी हो गई।

  • 11 सप्ताह का गर्भ → रिपोर्ट आने तक 15 सप्ताह
  • रिपोर्ट में पीड़िता को कुपोषित और हाई-रिस्क बताया गया
    इसके आधार पर पोक्सो न्यायालय ने प्रार्थना पत्र खारिज कर दिया जबकि स्पष्ट कानून है कि 20 सप्ताह तक गर्भपात महिला की स्वतंत्र इच्छा पर निर्भर है और बलात्कार के मामलों में यह अधिकार और भी स्पष्ट है। यहां पोक्सो न्यायालय के पास इस विषय में फैसला देने का क्षेत्राधिकार ही नहीं था, फिर भी प्रार्थना पत्र निस्तारित कर दिया गया।

हाई कोर्ट में पैरवी और संवेदनशील फैसला

इसके बाद पीड़िता के पिता की ओर से मामला राजस्थान उच्च न्यायालय, जोधपुर में एस.बी. सिविल रिट याचिका के रूप में पेश किया गया।

यहां पैरवी  कोटाशीन लॉ फर्म एवं वॉयस फॉर चिल्ड्रन की ओर से अधिवक्ता राजेंद्र सोनी द्वारा की गई। उनकी तत्परता से यह मामला फिर से सुना गया और पिड़िता को राहत का रास्ता मिला। 

उच्च न्यायालय ने प्रकरण को संवेदनशीलता से समझा और  उम्मेद हॉस्पिटल (वुमेन विंग) को निर्देशित किया कि चिकित्सीय गर्भ समापन कानून की मंशा के अनुसार बोर्ड गठित कर गर्भपात करवाया जाए।”

कानूनी तौर पर क्या कहता है नियम

20 सप्ताह तक किसी भी महिला को बिना अनुमति के गर्भपात का अधिकार है।

20 से 24 सप्ताह तक गर्भ समापन के लिए मेडिकल बोर्ड की अनुमति आवश्यक होती है।

बलात्कार से गर्भवती हुई पीड़िताओं को न्यायालय के आदेश से भी यह अधिकार प्राप्त है। लेकिन इस केस में जानकारी की कमी, संवेदनशीलता की कमी और प्रशासनिक देरी ने नाबालिग के साथ फिर एक और अन्याय कर दिया।

संवेदनशीलता की सबसे बड़ी परीक्षा

यह पूरा मामला सिर्फ़ कानून नहीं, बल्कि मानवीयता की भी परीक्षा है। जहां 11 सप्ताह का गर्भ, चार सप्ताह की रिपोर्टिंग देरी और एक संवेदनशील बच्ची की मानसिक पीड़ा — तीनों सवाल बनकर खड़े हैं। न्याय मिला जरूर, पर समय ने सज़ा दी — पीड़िता को।

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