मैं अपना घर हूं…

भरतपुर  |  राजेश खण्डेलवाल  |


 

मैं अपनाघर हूं…मेरा उद्भव पक्षियों की नगरी व अजेय दुर्ग लोहागढ़ के नाम से विख्यात भरतपुर के गांव बझेरा में हुआ। मेरी उपज एक ऐसे बालक की सोच से हुई, जो उस समय कक्षा 6 में पढ़ता था। हालांकि मुझे जन्म लेने के लिए काफी समय तक इंतजार करना पड़ा।


मैं अपनाघर हूं…मेरा उद्भव पक्षियों की नगरी व अजेय दुर्ग लोहागढ़ के नाम से विख्यात भरतपुर के गांव बझेरा में हुआ। मेरी उपज एक ऐसे बालक की सोच से हुई, जो उस समय कक्षा 6 में पढ़ता था। हालांकि मुझे जन्म लेने के लिए काफी समय तक इंतजार करना पड़ा। उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ जिले के सहरोई गांव में पिता बाबूलाल भारद्वाज एवं माता श्रीमती रामवती देवी के परिवार में जन्मा यह बालक पढ़-लिखकर अपना भविष्य संवारने भरतपुर आया तो फिर यहीं का होकर रह गया और इन्हीं के यहां 29 जून, 2000 को मेरा जन्म हुआ।

मेरी उत्पत्ति के बीज करीब 4 दशक पहले उस समय पड़े, जब इस बालक के गांव सहरोई में एक ग्वाला रहता था, जिसका नाम था चिरंजी। उसका अपना कोई नहीं था। वह गांव वालों की गाय व अन्य पशुओं को चराया करता था और ग्रामीणों से जो कुछ मिलता, उससे ही 80 वर्षीय चिरंजी का जीवन चल रहा था। एक बार ग्वाला चिरंजी इतना बीमार हुआ कि वह चल-फिर नहीं पाता था। उसके कीड़े पड़ गए तो गांव वाले भी उसके पास जाने से कतराने लगे। उसकी हालत देख यह बालक व्यथित हो उठा। सेवा करने के बाद भी उसे बचा नहीं पाने का मलाल इसे आज भी है। बस, यहीं से इसके मन में ऐसा विचार उपजा कि दुनिया में जिनका कोई नहीं है, अब जीवन सिर्फ ऐसे लोगों के लिए ही जीना है।

यही वह बालक है, जिसे आज डॉ. ब्रजमोहन भारद्वाज यानि डॉ. बीएम भारद्वाज के नाम से जाना जाता है। मेरे जनक एक ऐसे कर्मवीर हैं, जो कर्तव्यनिष्ठ के साथ कर्मसाधक भी हैं। मेरी जननी हैं डॉ.माधुरी भारद्वाज, जो इनकी सहपाठी भी रही हैं। ऐसे माता-पिता की संतान होकर मैं आज गौरवान्वित हूं। इनकी मेहनत, ईमानदारी और सेवामयी लगन से ही मुझे पहचान मिली।

बाल्यावस्था में मुझे उस समय बड़ी टीस हुई, जब मेरी मां ने मुझे खुद का भाई-बहन नहीं देने जैसा कठोर प्रण लिया और देवतुल्य पिता ने भी उनके इस फैसले में सहज सहमति जता दी, लेकिन आज मुझे यह अहसास हो रहा है कि उनका फैसला न्यायोचित रहा, क्योंकि इसी कारण आज मैं भी मोह-माया के बंधन से मुक्त हूं और खुद को भाग्यशाली मानता हूं।

अपनाघर में मुझे आज बहुत सुकून मिलता है। नन्हें पौधा से वृक्ष बनते-बनते मेरी शाखाएं फूटने लगीं, जो देश के तीन दर्जन शहरों तक पहुंच गईं। एक शाखा तो नेपाल तक जा पहुंची। इनमें 6 हजार 4 सौ से ज्यादा भाई-बहन, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, दादी-दादा, बुआ समान रिश्ते हैं। इनके ऐसे ही आवास भी हैं। ये जब एक साथ बैठकर भोजन प्रसादी ग्रहण करते हैं तो इनके चेहरे पर उभरते तृप्ति के भाव को देख संभवत: खुद प्रभु यानि भगवान भी मुस्करा उठते हैं। इस दर्शन को पाकर मैं भी धन्य-धन्य होता रहता हूं।

मेरे जीवन में असहनीय पीड़ा का दौर भी आया, जिसे सुनकर शायद आप भी असहज हो जाएं। यह बताना मजबूरी नहीं, बल्कि मैं जरूरी समझ रहा हूं। मेरी जननी व जनक मात्र 20 गुणा 20 फीट के एक कमरे में रहते थे और इसी साइज की दुकान में क्लिनिक चलाते थे। इसी कमरे में सड़क पर पड़े असहाय, लावारिस, बीमार प्रभुजी को लाकर उनकी सेवा की जाने लगी और मेरी यानि अपनाघर की नींव पड़ी। जब प्रभुजी यानि अपनाघर में रहने वाले आवासियों की संख्या 23 हो गई तो जगह छोटी पड़ने लगी। उस दौर में कोई साथ नहीं था, ना अपना और ना पराया। इन्हीं प्रभुजी के लालन-पालन की खातिर मेरी मां के गहने तक बिक गए तो पिता को चाय तक बेचनी पड़ी। मैं बालक था। मुझे दु:ख तो खूब होता था पर कुछ कर सकूं, इतना सामर्थ्य मुझमें नहीं था।

शुक्रिया भगवान! आपने मुझे मेरी मां व मेरे जनक के नाम पर ‘मां माधुरी बृज वारिस सेवा सदन’ जैसा पवित्र नाम दिया, जिसे ही आज अपनाघर आश्रम बोला जाता है। कुछ ऐसा ही अपनाघर हो, ऐसा सपना सबका होता है, लेकिन मैं ऐसे लोगों का सपना हूं, जिनका ना कोई अपना घर है और ना ठिकाना। मेरे आंगन में कभी रात्रि नहीं होती और कभी भी, कोई भी असहाय अपनाघर मानकर मेरे यहां आ सकता है। मेरे साथ ऐसे-ऐसे प्रभुजी रहते हैं, जो मनोरोगी हैं या अपनों की प्रताडऩा या फिर किसी आकस्मिक दुर्घटना से ग्रसित होकर मुझ तक पहुंचे हैं। समाज, जिन्हें लावारिस या फिर बेसहारा मानता है। मैं आज उनका अपना घर और परिवार भी हूं। यह सुनकर मुझे सुखद अनुभूति होती है।

मैं आज भी उन सज्जनों को भूला नहीं हूं, जिन्होंने बाल्यकाल में मुझे पौधे की तरह सींचने में अपने श्रम का पसीना बहाया। मैं किन शब्दों में उनका आभार जताऊं, यह समझ नहीं पा रहा हूं। वह भी वक्त था, जब मैं घुटमन चलने लायक हुआ तो मेरी अंगुली थामने बामुश्किल से कुछ सज्जन तैयार हुए। कहते हैं कि वक्त बदलता है तो सब कुछ बदल जाता है और कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। मुझे चलते देख जब पहली बार प्रभु यानि भगवान प्रसन्न हुए तो फिर उन्होंने ऐसा हाथ थामा कि सज्जन जुड़ते गए और कारवां बनता गया। इस प्रभु कृपा को व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।

समय और जरूरत के हिसाब से मेरे आंगन का विस्तार होता रहा और आज मैं अपनों के साथ 17 एकड़ के विशालकाय भवन में पल-बढ़ रहा हूं। मेरी नीयत पाक-साफ होने का मुझे गहरा आत्म संतोष है, हालांकि मैं आज भी प्रयासरत हूं कि मेरी नीयत में किसी तरह का आगे भी कोई खोट नहीं आए।

मेरी रसोई में भण्डार मात्र 7 दिन का रहता है, लेकिन यह प्रभु की कृपा और मुझे मिला मां अन्नपूर्णा का आशीर्वाद ही है कि ये 7 दिन कभी पूरे नहीं होते। मैं खुश इसलिए भी हूं कि मेरे अपनों को कभी किसी के द्वार पर हाथ फैलाना नहीं पड़ता और सरकारी तंत्र का भी मुंह ताकना नहीं पड़ता। अपनाघर से प्रभु के नाम लिखी जाने वाली चिट्ठी पाकर भगवान विभिन्न मानव स्वरूप में आकर सुई से लेकर मेरी हर बड़ी जरूरत की पूर्ति कर जाते हैं।

मेरे आंगन में आने वाले प्रभुजनों के चेहरों पर मुस्कान देखकर मैं परिंदों की मानिंद खूब चहकता हूं। मेरी खुशी उस समय और बढ़ जाती है, जब मेरे आंगन में रह रहे प्रभुजी को उसका कोई अपना अपने घर ले जाता है। उनके मिलन की खुशी में कई बार मेरी भी आंखें नम हो जाती हैं। अपनों के मिलन की इस खुशी को शब्दों में व्यक्त करना मेरे लिए आसान नहीं है।

मुझे उस समय गहरा सदमा सा लगता है, जब मेरा कोई अपना अपनों के ही बीच अंतिम सांस लेता है पर शायद नियति को ऐसा ही मंजूर था, यह सोचकर मैं आत्मसंतोष कर लेता हूं। आत्मसंतुष्टि मुझे इससे भी मिलती है कि ऐसे प्रभुजी को अपनाघर में उसके धर्मानुसार अंतिम विदाई दी जाती है।

मेरी खुशकिस्मत है कि मेरे आंगन में प्रभुजियों के लिए उनकी बीमारी के हिसाब से रहने की अलग-अलग व्यवस्था है। ठीक होकर कुछ प्रभुजी भी सेवा कार्य में जुटते हैं। बड़ा सौभाग्य यह भी है कि गर्भवती माताओं की सेवा करने का मौका मुझे मिलता है। ऐसा संभवत: देश में कहीं और किसी के नसीब में नहीं होता। इन माताओं के गर्भ से पैदा होने वाले बाल-गोपालों की किलकारियां जब मेरे आंगन में गूंजती है तो यह मेरे लिए किसी इबादत से कम नहीं होती। मेरे आंगन में सयानी होती बहनों के मधुर मिलन की शहनाई गूंजती है तो हजारों परिवार कन्यादान करने के लिए दौड़े चले आते हैं।

अब तो लोग बड़ी संख्या में बसों में तीर्थयात्रा का बैनर लगाकर यहां साक्षात प्रभु दर्शन कर खुद के जीवन को धन्य महसूस करने लगे हैं।

सीमित संसाधनों व कम खर्चें में श्रेष्ठ प्रबंधन के साथ नि:शुल्क बेहतर सेवाएं देने वाला एक अनूठा अपनाघर हूं, ऐसे शब्द जब मेरे कानों में सुनाई पड़ते हैं तो मेरा जन्म लेना मुझे सार्थक सा लगता है। मेरे आंगन में पल-बढ़ रहे छोटे भाई-बहनों में संस्कारों के साथ ही उनकी शिक्षा व चिकित्सा में किसी तरह की कमी नहीं रहे, इसका हर संभव ख्याल रखा जाता है। उन्हें आगे चलकर यह अहसास तक नहीं हो कि दुनिया में कोई उनका अपना होता तो शायद बेहतर अवसर मिलता। भरतपुर में बने मेरे आंगन में नर सेवा-नारायण सेवा के अलावा बीमार जीव-जन्तुओं की सेवा का अहोभाग्य भी मुझे मिलता है, हालांकि फिलहाल मेरी अन्य शाखाओं में मुझे यह सौभाग्य नहीं मिलता।

यह मेरे संत पुरुष तुल्य अभिभावकों के तप व त्याग का परिणाम है कि देश में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने मुझे याद किया। उन्होंने मेरे बारे में दुनियाभर को जो बताया, उसे सुन और देखकर मिली दुआओं से अब मेरी जिम्मेदारियां और ज्यादा बढ़ गई हैं, जिनका मुझे अच्छे से भान है।

समाज की नजर में बेसहारा, बीमार, असहाय प्रभुजनों की सेवा ही मेरी पूजा व आराधना है। मैं आज भी इस ध्येय वाक्य पर प्रयासरत हूं कि कोई भी आश्रयहीन, असहाय पीड़ित या लावारिस बीमार को सेवा एवं संसाधनों के अभाव में वेदनादायक पीड़ा एवं असामयिक काल का ग्रास बनना नहीं पड़े। मेरी यही करुणामयी प्रार्थना है कि आपको कोई ऐसे प्रभुजन नजर आएं तो अपनाघर को सूचना दे दें। सक्षम हैं तो उसे अपनाघर पहुंचाने में मददगार बनें। कोई भी अपनों को अपने घर से बेघर ना करे और कोई अपना बिछुड़ गया है तो एक बार उसे मेरे आंगन में तलाशने जरूर आएं। मेरे लिए आपकी यह सबसे बड़ी मदद होगी और मैं आभारी रहूंगा। मैं चाहता हूं कि देश के हर शहर में अपनाघर का आंगन हो ताकि समाज की नजर में बेसहारा, लावारिस, असहाय माने जाने वाला कोई भी प्रभुजी खुद को ऐसा नहीं समझे कि मैं अनाथ हूं, क्योंकि उन्हें मेरे नाथ संभालेंगे जरूर। इससे उन्हें भी यह सुखद अनुभूति होगी कि मेरा भी अपना घर है।





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