कूटनीतिज्ञ और कला प्रेमी रहीं भरतपुर की महारानियां

भरतपुर स्थापना दिवस 

विधि अग्रवाल 


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भरतपुर के महाराजा ही नहीं, बल्कि इस रियासत की महारानियां भी कूटनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ और कला प्रेमी रही हैं। इन महारानियों ने अपनी उत्कृष्ट कार्य शैली से रियासत की जनता पर अमिट छाप छोड़ी थी। यहां की रानियों ने हिंदी की अतुल सेवा की है। कुछ तो ऐसी थीं जो स्वयं काव्य रचना करती थीं, लेकिन इनके विषय में बहुत कम लोगों को ज्ञात है। यहां तक कि वर्तमान पीढ़ी उनके नामों तक को नहीं जानती। लेखकों ने भी भरतपुर की महारानियों के विषय में कम लिखा है। इसलिए इनके बारे में विवरण भी बहुत कम उपलब्ध है। प्रस्तुत है इन महारानियों के संदर्भ में कुछ सामग्री।

दादीश्री देवकी
दादी श्री देवकी महाराजा बदन सिंह की रानी थीं। बदन सिंह के कुल 22 महारानियां थीं, उन्हीं में से दूसरी महारानी का नाम दादी श्री देवकी था, दादीश्री देवकी की कोख से प्रबल प्रतापी महाराजा सूरजमल का जन्म हुआ, जिन्हें भरतपुर की स्थापना का श्रेय जाता है श्री देवकी, हरदेव जी की अनन्य भक्त और विदुषी थीं।

गंगा महारानी
महाराजा सूरजमल की 14 महारानियां थीं। उन्हीं में से एक का नाम गंगा महारानी है जिन्होंने महाराजा जवाहर सिंह और रतन सिंह को जन्म दिया। गंगा महारानी के पुण्य और विभिन्न गाथाएं पूरे बृज में विख्यात हैं। इनके अक्षय चित्त वृंदावन धाम आदि तीर्थों में अब भी मिलते हैं। गंगा मोहन का मंदिर इन्हीं का बनवाया है। यह महारानी गंगिया के नाम से प्रसिद्ध थीं और इनका जन्म कछवाहे राजपूतों के यहां हुआ।

महारानी किशोरी
महाराजा सूरजमल की दूसरी महारानी का नाम किशोरी है। महारानी जितनी विदुषी और भक्त थी, वैसी ही राजनीति में भी निपुण में। इनकी भक्ति की गाथाओं में श्रीनाथ जी के दर्शनों की कथा प्रसिद्ध है। ऐसा कहा जाता है कि एक बार जब महारानी नाथद्वारा गई तो उस समय उन्हें श्रीनाथ जी के मंदिर के पट बंद मिले। महारानी तब सत्याग्रह करके वहीं बैठ गई और भगवत गुण का वर्णन करने लगीं। इसी दौरान मंदिर के पट स्वत: ही खुल गए। बताया जाता है कि अब शयन के दर्शनों के बाद महारानी किशोरी के नाम से श्रीनाथ जी के दर्शन होते हैं। महारानी किशोरी का भरतपुर के राजनीतिक इतिहास में विशेष स्थान है।

वह होडल के काशी चौधरी की पुत्री थीं। कहा जाता है कि एक बार महाराजा सूरजमल हाथी पर सवाह होकर होडल जा रहे थे । तभी कुछ लड़कियां हाथी को देखकर डरकर भाग गई। केवल किशोरी ही निडरता से वहीं खड़ी रहीं। इसी निडरता ने सूरजमल का ध्यान किशोरी की ओर आकर्षित किया और उन्होंने उस कन्या के परिवारजनों के बारे में पूछताछ करके विवाह करने का प्रस्ताव रखा, जिसे काशी चौधरी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। निर्भीकता का परिचय महारानी किशोरी ने कई बार दिया। बदन सिंह और सूरजमल की दूरदर्शी राजनीति का पालन भी इस विवाह से हुआ। इन दोनों महाराजाओं ने बड़े-बड़े जाट घरानों से राजनीतिक दृष्टि से वैवाहिक संबंध जोड़कर अपनी ताकत में वृद्धि की थी।

महारानी किशोरी धर्मपरायण राजनीतिज्ञ और विदुषी थीं। इन्होंने गोवर्धन (उत्तर-प्रदेश ) में एक विशाल महल बनवाया था जो किशोरी महल के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। महल से एक द्वार में ही बने मंदिर के लिए निकलवाया। इसमें से महारानी दर्शन करने जाती थी। ये महारानी साहित्य से भी प्रेम करती थीं। इनके आश्रित अनेक कवि रहते थे। जयसिंह, रामानंद, सुधाकर, शिवराव आदि ने इनकी प्रशंसा की है। रामानंद ने तो अपना चूड़ामणि ग्रंथ इन्हीं की प्रेरणा से लिखा।

महारानी किशोरी कितनी बहादुर थीं इसका एक उदाहरण दिल्ली की चढ़ाई का है। महाराजा सूरजमल और उनके पुत्र जवाहर सिंह के बीच किन्हीं मामलों में मतभेद हो जाने के कारण जवाहर सिंह भरतपुर छोड़कर हरियाणा को फतह करने के लिए चले गए थे। वहीं महाराजा सूरजमल ने दिल्ली के शाहदरा में वीरगति पाई। इसके बाद उनके पुत्र जवाहर सिंह भरतपुर आए और सिंहासनारुढ़ हुए। कहा जाता है कि सूरजमल की मृत्यु के बाद जब पगड़ी की रस्म के पश्चात जवाहर सिंह महारानी किशोरी को प्रणाम करने गए तो उस वीर महिला ने अपने पुत्र को यह कहकर ताना मारा कि उसके पिता की पगड़ी तो शाहदरा के मैदान में पड़ी है और बिना शत्रु को जीते उसने यह पगड़ी कैसे बांध ली। महारानी को यह पता था कि ऐसे कठोर शब्दों का असर जवाहर सिंह पर तुरंत पड़ेगा और वे अपने पिता का बदला लेने के लिए जल्दी से निकल पड़ेंगे। यही हुआ और जवाहर सिंह अपनी माता के आदेश पाकर जंग के लिए दिल्ली पर चढाई कर बैठे। जवाहर सिंह ने पूरे छह महीने तक दिल्ली को घेरे रखा और विजयश्री प्राप्त करके ही भरतपुर को वापस आए। दिल्ली की यह विजय महारानी किशोरी के प्रोत्साहन के कारण ही मिल पाई थी।

महाराज जवाहर सिंह के भाई रतनसिंह के पुत्र दो वर्षीय केहरी सिंह गद्दी पर बैठे लेकिन तब जवाहर सिंह के दूसरे भाई नवल सिंह और रंजीत सिंह में राजकाज को चलाने को लेकर झगड़ा हुआ। इसका फायदा दिल्ली के वजीर नवाब नजफ खां ने उठाया और बरसाने की लड़ाई में नवल सिंह को हराकर डीग पर अधिकार कर लिया। तभी रंजीत सिंह ने नजफ खां से युद्ध छेड़ दिया। रंजीतसिंह और महारानी किशोरी इस युद्ध का संचालन कर रहीं थे। इसकी जानकारी नजफ खां को मिली तो उसने कुम्हेर पर घेरा डाल दिया। इस घेरे से रसद की आवाजाही रुकने से जब प्रजा को कष्ट हुआ तो महारानी किशोरी ने रंजीत सिंह को तो किसी रास्ते भरतपुर भेज दिया और स्वयं कुम्हेर में ही रहीं। फिर नजफ खां के पास गईं और ऐसी कुशलता से बातचीत की कि मिर्जा ने महारानी को अपनी माता के समान मानकर उनका बड़ा आदर सत्कार किया और महाराजा रंजीत सिंह को भरतपुर का अधिकार दे दिया। इस समय महारानी ने ऐसी राजनीति से काम लिया कि नजफ खां का विरोध मित्रता में बदल गया।

महारानी हंसिया
महाराजा जवाहर सिंह की तीसरी महारानी हंसिया थीं जिनकी कीर्ति मथुरा और गोवर्धन तक रही है। मथुरा में कसगंज और गोवर्धन में कुंज महारानी हंसिया से जुड़े हैं। कुंज छज्जे गुंसाई हिम्मत बहादुर ने महाराज से किसी बात पर बिगड़ जाने पर तोड़ दिए थे। हंसिया महारानी का महल भरतपुर दुर्ग के अन्दर रामेश्वरी देवी कन्या महाविद्यालय के रास्ते में स्थित है।

महारानी जलकौर
जलकौर महाराजा रनजीत सिंह की महारानी थीं। वह गोवर्धन की परम भक्त थीं। उन्होंने मानसी गंगा के तट पर जमुना मोहन का मंदिर बनवाया। इस मंदिर को करीब दो सौ वर्ष हो चुके हैं। महाराज बलवन्त सिंह के शासनकाल में इस मंदिर के लिए आजीविका नियत हुई।

महारानी लक्ष्मी
भरतपुर के महाराजा रणधीर सिंह की महारानी का नाम लक्ष्मी था । वह भगवद भक्ति में लीन रहती थीं। इनकी भक्ति के प्रमाण के तौर पर वृन्दावन में यमुना तट पर एक कुंज है। इस कुंज की प्रतिष्ठा वैशाख सुदी 10 संवत 1880 विक्रम को हुई थी। कहा जाता है कि वह इंजीनियरों के अथक प्रयासों के बाद भी इस कुंज की नींव ठहर नहीं पाती थी। जब महारानी लक्ष्मी को इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने यमुना जी से प्रार्थना की। फलस्वरूप यमुना जी ने स्थान दिया और कुंज बनकर तैयार हो गई। इस कुंज के विषय में एक कवि ने छन्द भी लिखे हैं।

महारानी अमृत कौर
यह महाराजा बलदेव सिंह की महारानी थीं और कामकाज में बराबर हिस्सा लेती थीं। उन्हें कविता से बड़ा अनुराग था। महाराजा भी कविता रसिक थे और ‘चतुर’ नाम से कविता करते थे । ‘मंगल पद’ नाम से एक काव्य ग्रन्थ भी उन्होंने लिखा है। महारानी अमृत कौर स्वयं ‘चतुरसखी’ के नाम से भक्तिरस की कविता करती थीं और गायन कला में प्रवीण थीं। उनके पद गायन राग तालादि से बैठे हुए हैं। इनमें राग सोरठ, राग और मलाद, राग भैरवी ताल, राग खम्माच ताल प्रमुख है।

महारानी गुमान कौर
यह महाराजा बलवन्त सिंह की महारानी थीं और खैरटावानी कहलाती थीं। उन्होंने विजय सिंह के जन्म लिया। यह महारानी भी राजनीतिज्ञ और विद्यानुरागजी थीं लेकिन इन के बारे में विवरण बहुत कम उपलब्ध है।

महारानी दरयाब कौर
दरयाब कौर महाराजा जसवन्त सिंह की महारानी थीं। यह काफी धार्मिक प्रवृत्ति की रही हैं। इनका साधु-सन्तों से काफी श्रद्धा का भाव था। उन्होंने काफी धर्म के कार्य किए। भरतपुर दुर्ग के अन्दर स्थित श्री दरयाव मोहन जी का विशाल मंदिर इन्हीं ने बनवाया था। इस मंदिर की जब प्रतिष्ठा हुई थी तब काशी आदि बड़े-बड़े स्थानों से विद्वान बुलाए गए थे और करीब एक सप्ताह तक वाचस्पति पं. दीनदयाल, पं. भीमसेन, पं. गोविन्दराम शास्त्री आदि के उपदेश होते रहे।

श्रीभांजी साहिबा
भरतपुर रियासत के जो भी सुधार आदि के कार्यक्रम चले उसमें भांजी साहिबा का नाम काफी ऊपर आता है। उनकी राजनीतिक बुद्धि बड़ी प्रखर और विचित्र थी। जहां उन्हें राजनीति का अतुलित ज्ञान था, वहीं साहित्य का भी अटूट ज्ञान था। उन्होंने ‘श्रीब्रज विलास’ के नाम से कविताबद्ध ग्रन्थ लिखा है। यह ग्रन्थ उस समय मुम्बई की वैंकटश्वर प्रेस में छपा था। भरतपुर रियासत में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का पद दिलाने में उनका बहुत बड़ा योगदान था। आयुर्वेद के प्रचार में भी उनकी अहम भूमिका रही। उन्होंने महिला शिक्षा की खूब हिमायत की। वह समाज सुधार को बहुत पसन्द करती थीं। विवाह आदि मौके पर जो निर्लज्जता पूर्ण गाली गाई जाती थीं, उनके स्थान पर शिक्षाप्रद गीत गाए जाना वह बहुत पसंद करती थीं। उन्होंने ‘श्री ब्रजराज विलास में ऐसे ही गीत रच रखे हैं। भांजी साहिबा महिलाओं में विद्या प्रचार के साथ-साथ गृह शिक्षा के प्रचार को आवश्यक समझती थीं और इसीलिए उन्होंने ‘पाक प्रकाश’ नामक पुस्तक भी लिखी । इसके बाद के महाराजाओं की महारानियों ने भी सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक विषयों पर बहुत अहम योगदान दिया।





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