सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का निराला व्यक्तित्व

डॉ. सत्यदेव आजाद  


जयंती पर विशेष 

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निराला जी जब अध्ययन कर रहे थे तो परीक्षा में एक निबंध लिखवाया गया था ‘तुम अपने जीवन में क्या बनोगे?’ उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर दिया था ‘मैं निराला’ बनूंगा । जब काव्य पाठ करूंगागा तो अनुभूतियों की सामूहिक वर्षा होने लगेगी। और वास्तव में बाद में उनका व्यक्तित्व ही निराला बन गया था।

हिन्दी साहित्य की विरल विभूतियों में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला गणनीय है। उन्होंने अपने जीवन का कण-कण मां भारती के पद पदों में निष्काम भाव से समर्पित कर दिया था। छाया वादी युग के स्तम्भ होने पर भी उनकी आत्मा संतवत थी । यदि विद्रोही और फक्कड़ स्वभाव की दृष्टि से उनकी समता किसी से की जा सकती है तो केवल संत कबीर से ही। जिस प्रकार कबीर लकुटी हाथ में लेकर बाजार में आ खड़े हुए थे और अपने साथ चलने वालों से घर फूंकने की आशा रखते थे, उसी प्रकार निराला भी समाजिक दृष्टि से विपन्न और सर्वहारा कोटि के प्राणी थे ।

उनके मानस पर पत्नी के असामायिक निधन का वियोग जन्य प्रभाव पड़ा था । उन्होंने शून्य में निहारते हुए जूही की कली कविता लिखी जो कल्पना बेग को ग्रहण कर भावभिव्यक्ति में समर्थ हुई। जूही की कली आज हिन्दी साहित्य में ऐतिहासिक एवं साहित्यिक महत्व वाली रचना मानी जाती है जिसमें केवल रचयिता की शाक्ति का ही आभास नहीं वरन उस युग के भावी परिवर्तन का भी संकेत दिया है।

निराला के जीवन की गतिविधि का दिग्दर्शन उनकी सरोज स्मृति कविता से होता है । विवाहित पुत्री की उपयुक्त चिकित्सा के अभाव से निधन होने पर उनकी स्मृति को सजीव करने के लिए उन्होंने जो काव्य रचना लिखी है वह उसका आत्म चरित्र बन गई है। इस कविता के आरम्भ में उन्हें पिता होने की निरर्थकता की अनुभूति होती है और वह पुत्री के लिए कुछ भी न कर पाने पर आत्मग्लानि के साथ लिखेंगे:

‘धन्ये मैं पिता निरर्थक था
कुछ भी तेरे हित कर न सका।’

निराला का शैशव बंगाल में व्यतीत हुआ था और प्रारम्भिक शिक्षा भी बंगला भाषा में हुई थी। हिन्दी सीखने की प्रेरणा उन्हें अपनी पत्नी से मिली।  उन्होंने स्वयं लिखा है श्रीमती जी समझती थी कि मैं और चाहे कुछ और होऊं किंतु हिन्दी का पूरा गंवार हूं और फिर भला कौन पति अपनी पत्नी के आगे गंवार बनना पसंद करेगा ? फलत: उन्होंने अपनी पत्नी से न केवल हिन्दी ही सीखी अपितु उसमें काव्य रचना कर उस भाषा पर अपना अधिकार भी प्रभावित कर दिया । उनकी रचनाओं में ग्राम्य जीवन के प्रति उनकी तीव्र आसक्ति का भी दर्शन होता है। 

निराला जी भारतीय संस्कृति से ओत प्रोत थे । उन्हें अपने अतीत पर बड़ा गर्व था । सुप्त भारतवासियों के अपनी विस्मृत वीरता का एहसास कराने हेतु उन्होंने  ‘जागो फिर एक बार’ लिखा था ।

अपने जीवन की उच्चस्तरीय तपस्या में अपने सम-सामयिक कवियों में सर्वाधिक श्रद्धा के पात्र होने पर भी उन्हें अभिनन्दन कराने से चिढ़ थी । प्रहार सहते-सहते उनका हृदय निराश हो चला था । वैसे तो अपने निराले व्यक्तित्व के कारण निराला जी को जीवन पर्यन्त अनेक विपत्तियों और संघर्षो का सामना करना पड़ा था किन्तु अति मदिनों में उनका जीवन दुख व अभावों से जूझते हुए बीता था । जब कभी उन्हें अच्छी धनराशि मिलती थी तो वह उस राशि को किसी न किसी को दान में दे दिया करते थे । एक बार उन्हें पुरस्कार स्वरूप 2100/- रूपये मिले तो  उस पूरी रकम को एक विधवा को सहायता स्वरूप दे दिया । एक बार उन्होंने भोजन की परोसी हुई थाली एक बुढ़िया को नागपंचमी मनाने के लिए दे दी और स्वयं भूखे रह गए थे ।

किसी का दुःख देखकर उनका कवि हृदय करूणा से आर्द हो जाता था । वह प्रायः अपने पास कुछ भी न रखकर दूसरों की सहायता किया करते थे । सड़क पर जाड़े से ठिठुरते प्राणी को देखकर उसे अपना गद्दे और ओढ़ना तक दे देते थे और फिर स्वयं उसी की भांति रात भर ठिठुरते रह जाते थे। गुणों के इतने परोपकारी कम ही मिलते है ।

निराला जी लगभग 45 वर्षों तक काव्य सृजन में लीन रहे । शारीरिक व मानसिक रूग्णता के दिनों में भी उनकी लेखनी ने विराम लेना स्वीकार नहीं किया।

                                           (लेखक नारी चेतना और बाल बोध मासिक पत्रिका ‘वामांगी’ के प्रधान संपादक हैं)





 

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