योगेन्द्र गुप्ता
भरतपुर बृज संस्कृति की समृद्धि और विकास का परिचायक है। यह राजस्थान के पूर्वी सिंह द्वार का एक सजग प्रहरी रहा है। यहां का कोई न कोई नगर, कस्बा और गांव अपने आपमें एक इतिहास है। कुछ कस्बे तो पौराणिक काल से जुड़े हैं। यहां के अनेक क्षेत्र अति प्राचीन काल से ही ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक समग्रता का केन्द्र रहे हैं। कुछ इलाके तो ऐसे हैं जिनमें उत्खनन कार्य से मिले पुरातात्विक महत्व के अवशेषों में मौर्य, श्रृंग व कुषाणकालीन सभ्यता की झलक नजर आती है। ऐसे कुछ अवशेष भरतपुर व मथुरा के संग्रहालयों में सुरक्षित रखे हैं। उन पर अनेक देशी-विदेशी लोग शोधकार्य में लगे हैं। भरतपुर की स्थापना बसंत पंचमी के दिन हुई थी। आइए जानते हैं भरतपुर के ऐतिहासिक नगर और कस्बों की कहानी।
पौरणिक कथाओं से भरा है बयाना का इतिहास
बयाना का इतिहास अनेक पौराणिक गाथाओं से भरा पड़ा है। आरंभ में यह बाना लोगों की राजधानी थी। संभवतः इसी कारण इस कस्बे का नाम भी बनते- बिगड़ते बयाना हो गया। इस कस्बे का प्राचीन नाम वाणासुर नगरी भी बताया जाता है लेकिन अभी इस बारे में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध है। इसका पुराना नाम श्रोणितपुर भी था। यहां एक भीमलाट है जो दरअसल यज्ञ स्तूप है। ‘बृजेंद्र वंश भास्कर’ पुस्तक में इसके बारे में उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार महाराज बदिक विष्णु वर्धन ने संवत 428 वि. में यहां पुण्डरीक यज्ञ किया था। विष्णु वर्धन महाराजा यशोधर्मा मंदसौर वालों के पिता थे। जिन्होंने हुणों को हराया था।
बयाना का किला कस्बे से चार मील दूर दक्षिण में आठ सौ फीट ऊंचाई पर पहाड़ी पर बना है जिसका क्षेत्रफल करीब दस मील है। इसमें किसी समय अनेक महल, तालाब व बांध थे। इनमें कुछ के अवशेष अभी भी दिखाई देते हैं। सन् 360 में इस नगर और इसके किले पर सम्राट समुद्र गुप्त ने अधिकार कर लिया था। सम्राट हर्ष के शासनकाल में यह किला गूजर शासकों के स्वतंत्र अधिकार में आ गया। नवीं शताब्दी के समय गूजरों की प्रतिहार शाखा ने इसे अपने अधिकार में कर लिया था। जो शिलालेख उषा मंदिर से प्राप्त हुए हैं उसी से यह पुष्टि होती है कि यहां गूजरों का शासन भी रहा। 11 वीं शताब्दी के आरंभ में यहां मथुरा के यदुवंशी राजा हिन्दपाल का राज कायम हो गया। उसके बाद उनका पुत्र जयपाल यहां का शासक रहा। उसी ने इस किले की मरम्मत कराके महल वगैरह बनवाए और इसका नाम विजय मंदिर गढ़ रखा। बयाना के मुख्य स्मारकों में भीमलाट, दाऊद खां की मीनार, उषा मंदिर, इब्राहिम लोदी की मीनार, अकबर की छतरी, जहांगीर की बनवाई बावड़ी व दरवाजा प्रमुख हैं। यहां का किला शाहजहां और औरंगजेब के शासन काल में मुगल साम्राज्य के कारावास के काम आता था।
बयाना का इतिहास कितना पुराना है यह बात17 फरवरी, 1946 को यहां से सात मील दूर दक्षिण पूर्व में स्थित, नगला छैला गांव से मिली गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्राओं की निधि से मालूम हो जाती है। यह विश्व में आज तक प्राप्त हुई गुप्तकालीन सिक्कों की सबसे बड़ी निधि है। इसमें चन्द्रगुप्त प्रथम 305-325 ई. तक के सिक्के हैं।
डीग रही है पौराणिक स्थली
डीग पौराणिक स्थली रही है। स्कन्ध पुराण में इस स्थान को तीर्थों की श्रेणी में माना गया है। इसका पुराना नाम दीर्घ बताया जाता है। यह धार्मिक स्थल ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा में आता है। यह स्थल कभी भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का केन्द्र भी रहा था। इसके आसपास अनेक धार्मिक व पौराणिक स्थल बद्रीवन, आदिबद्री, दधिअवली आदि आज भी मौजूद हैं। डीग कस्बा भरतपुर से 22 मील उत्तर में और आगरा से 40 मील उत्तर पश्चिम में है। इसका पुराना वैभव अब नजर तो नहीं आता लेकिन इसके अतीत की कहानियां खंडहर महल, भवन और जलाशय आज भी कह रहे हैं। यह इलाका 18 वीं शताब्दी में उत्तरी भारत का सर्वोच्च शक्ति केन्द्र रह चुका है। उस समय इसके शौर्य व सौन्दर्य की गाथाएं देश के हर हिस्से में सुनी जाती थी। यह कस्बा सामरिक महत्व का रहा है। अनेक ऐतिहासिक युद्ध इसी भूमि से लड़े गए थे। यह सिनसिनवारों की भी राजधानी रह चुकी है
ब्रजराज बदनसिंह ने किले के बाद इसके पश्चिम में महल बनवाए जो अब पुराने महलों के नाम से जाने जाते हैं। इनमें अब सरकारी कार्यालय हैं। बदनसिंह के बाद महाराजा सूरजमल ने 1759 से 1763 तक डीग के प्रसिद्ध भवनों का निर्माण कराया था। यहां का उद्यान भवन सौन्दर्य और शिल्पकला की दृष्टि से उच्चकोटि के माने जाते हैं। डीग के चारों ओर सुरक्षा की दृष्टि से एक कच्चा परकोटा बना हुआ है लेकिन अब इस पर अवैध कब्जे होते जा रहे हैं। गढ़ के उत्तर पश्चिम में शाह बुर्ज है जो सुदृढ़ बनाई गई थी। दरअसल यहां के जाट राजाओं ने इस नगर को सुन्दर व सुदृढ़ बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
इस परकोटे के चारों तरफ भरतपुर शहर की भांति गहरी और चौड़ी खाई बनाई गई थी जिसमें करीब बीस फीट पानी भरा रहता था। कस्बे के बिल्कुल मध्य में दुर्गम किला बना हुआ है जिसकी दीवार और बुर्ज ऊंची व चौड़ी हैं। इस किले में छोटी-बड़ी बुर्जों को मिलाकर कुल बारह बुर्ज बनी हैं।
डीग शहर के दस दरवाजे हैं जो भूडा, पान्हौरी, शाहपुर, बंधा, कामां, देहली, जसोंधी, गोवर्धन और रामचेला दरवाजों के नाम से जाने जाते हैं। किले के मध्य में भरतपुर के संस्थापक महाराजा सूरजमल का महल है जिसमें वह सबसे पहले रहा करते थे।
यहां के उद्यान भवन हिन्दू शिल्पकला के प्रतीक है। किले के पश्चिम में स्थित जग प्रसिद्ध महलों को महाराजा सूरजमल ने बनवाया था। यह भवन तालाबों के बीच बने हैं जिनमें सबसे नीचे की मंजिल तालाब के पानी में डूबी रहती है। इन्हीं कारणों से डीग को जल महलों की नगरी कहा जाता है।
कामां में भी मिले हैं महाभारत कालीन अवशेष
कामां को काम्यवन भी कहते हैं। पहले यहां काम्यक लोगों का राज था। संभवत: इसी कारण इसका नाम पहले काम्यवन और फिर कामां पड़ा। ऐसा भी कहा जाता है कि इस प्राचीन नगरी का नाम पहले ब्रह्मपुरी भी रहा। एक अन्य जानकारी के अनुसार यदुवंशी राजा कामसेन ने ही इस नगरी का नाम कामां रखा। यह स्थल एक धार्मिक, सांस्कृतिक व ऐतिहासिक जगह है जो डीग से 13 मील और भरतपुर से 37 मील दूर स्थित है। कामां में भी महाभारत काल के अवशेष मिल जाते हैं। यहां पांचों पाण्डवों की मूर्तियां मिली हैं।
कामां में भी महाभारत काल के अवशेष मिल जाते हैं। यहां पांचों पाण्डवों की मूर्तियां मिली हैं और धर्मराज युधिष्ठिर के नाम पर धर्मकूप व धर्मकुण्ड भी है। काम्यवन की पहाड़ी में श्रीकृष्ण की बाल लीला से संबंधित कई प्राचीन चिन्ह है जिनमें खिसलनी शिला और भोजन थाली प्रमुख हैं। कामां में पुरानी ऐतिहासिक इमारतों के अवशेष भी काफी तादाद में हैं जो छठी से दसवीं शताब्दी तक के हैं। यहां के प्राचीन मंदिरों और मूर्तियों के अवशेषों से इस स्थान की उन्नत प्राचीन कला के दर्शन होते हैं। यहां के 84 मंदिर, 84 कुण्ड, 84 खंभे और सात दरवाजे प्रसिद्ध हैं। यह इलाका कुल मिलाकर धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक सभी दृष्टि से ब्रज का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रहा है। कामां मध्यकाल में वैष्णव मूर्तिकला का एक बड़ा केन्द्र रहा। यहां जो कलापूर्ण मूर्तियां मिली हैं उनमें शिव, हरगौरी, सूर्य, महषमर्दिनी, दुर्गा, विष्णु का विराट रूप, शेषशायी आदि प्रमुख हैं। बल्लभ सम्प्रदाय के मुख्य गद्दी मंदिरों में दो गोकुल चन्द्रमा जी और मदनमोहन जी के मंदिर भी यहीं पर हैं। यहां के गोपीनाथ और गोविंददेव मंदिर भी प्रख्यात हैं। यहां का विमल कुण्ड नामी ताल है
कुम्हेर में हुआ था मराठाओं से संघर्ष
कुम्हेर का पुराना नाम कुम्मीरगढ़ अथवा कुबेरपुर भी रहा है। इतिहासकारों के अनुसार इसे कुंभ नाम के जाट सरदार ने बसाया था। यह कस्बा भरतपुर से नौ मील दूर स्थित है। यहां के किले और महलों को ठाकुर बदनसिंह ने बनाया। जब मरहठों ने यहां के किले को घेरा और लड़ाई हुई तो उसमें खांडेराव की मृत्यु हो गई। उनकी छतरी गांगरसौली में आज भी बनी हुई है।
रूपवास आखेट के लिए आया करता था अकबर
रूपवास भरतपुर से 16 मील दूर स्थित है। इसके पास एक घना जंगल था जहां अकबर शिकार खेलने आया करता था। इस जंगल में शिकार के बुर्ज अभी भी दिखाई देते हैं। रूपवास के पास पत्थर की बड़ी-बड़ी मूर्तियां हैं। इनमें एक मूर्ति बल्देव की साढ़े बाईस फीट लम्बे पत्थर के ऊपर काटकर बनाई गई है। रूपवास तहसील में ही बांसी पहाड़पुर की लाल व सफेद पत्थर की विश्व प्रसिद्ध खाने हैं। इसी के पत्थर से डीग के प्रसिद्ध भवन और आगरा, मथुरा और फतेहपुर सीकरी के महल बने हुए हैं। पत्थर मुगल बादशाहों के महलों में भी लगा है।
की झंझावातों को झेला है सिनसिनी ने
सिनसिनी एक ऐतिहासिक गांव है जो डीग के पास स्थित है। भरतपुर पर सिनसिनवार गोत्र के जाट सरदारों का राज्य रहा है। भरतपुर से पहले सिनसिनी ही इनकी राजधानी थी। सिनसिनी ने कई झंझावातों को झेला है। सिनसिनी का पुराना नाम थूरसैनी था और सौरसैन लोगों की यह राजधानी थी। सौरसैन लोगों का किसी समय बड़ा प्रभाव था। यहां तक कि उत्तर भारत में बोली जाने वाली भाषा ही उनके नाम से सौरसैनी कहलाई गई। यह सौरसैनी चन्द्रवंशीय क्षत्रिय थे। भरतपुर का राजवंश भी चन्द्रवंशीय है। ठा. राजाराम का नाम सिनसिनी से विशेष रूप से जुड़ा है।
राजाराम ने इस गांव में मजबूत गढ़ का निर्माण कराया। इसी में उसने एक सुरंग बनवाई जो घने जंगल में निकलती थी। किले के अंदर काफी कुएं और तालाब बनाए। इनके अवशेष गांव में अभी भी मिलते हैं। मुगल सेनापतियों के काफिलों और सिकन्दरा के आक्रमण से छीनकर लाई गई तोपों को इस किले की दीवार की बुर्जों पर चढ़ाया गया। इस गांव से सिनसिनवार जाटों का निकास है जिनमें महाराज भरतपुर भी हैं। वीर गोकुला जाट का जन्म भी इसी गांव में हुआ था जिसकी इस्लाम धर्म कुबूल न करने पर एक-एक बोटी काटकर मुगल शासक ने आगरा की कोतवाली पर डलवा दी थी। इस गांव में यहां के महाराजाओं के इष्टदेव लक्ष्मण जी का एक पुराना मंदिर भी है। इसके अलावा सिनसिना बाबा का मंदिर भी यहां है।
महाभारत कालीन आर्यों का नगर था नोंह
नोह गांव भरतपुर के प्राचीनतम गांवों में से एक है। यह शहर से छह किलोमीटर दूर आगरा रोड पर स्थित है। यहां पुरातात्विक महत्व का एक टीला है जिसका 1963 में कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के सहयोग से राजस्थान पुरातत्व विभाग ने उत्खनन किया था जिसमें 1400 वर्ष ई.पू. से तीसरी शताब्दी ई. तक के पुरावशेष मिले। इन अवशेषों से ही यह पता चला कि यह इलाका पांच विभिन्न संस्कृतियों का एक केन्द्र रहा। नोंह की इस खुदाई के कारण भरतपुर ने भारत के पुरातत्व नक्शे पर अपना स्थान बनाया। इस गांव से प्राप्त अवशेषों से यह जाहिर होता है कि यह महाभारत कालीन आर्यों का नगर था। यहां खुदाई में मिले मनके, मछली पकड़ने के कांटे, भाले के फलक, खिलौना, ताम मुद्राएं, धातु गलाने की भट्टी, ताम्बे के सिक्के, जानवरों की मूर्तियां, हवन कुण्ड आदि प्राचीन काल की उन्नति की कहानी कहते हैं। ब्रज संस्कृति से प्रभावित भरतपुर की लोक कलाओं की अनूठी शैली के तहत यहां नौ फीट ऊंची यक्ष की प्रतिमा मिली है। नोंह की बोधिसत्व मैत्रेय की प्रतिमाएं पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
पूंछरी
पूंछरी राजस्थान की सीमा का भरतपुर का छोटा सा गांव है। यह गिरिराज पहाड़ी की पश्चिमी दिशा वाले अंतिम छोर पर स्थित है। गौ स्वरूप गिरिराज का मुख मानसी गंगा में और पूंछ यहां मानी जाती है। इसलिए इसे पूंछरी कहते हैं। गिरिराज जी की पूरी परिक्रमा सात कोस की है। इसके दो भाग हैं। पहला भाग पूंछरी की परिक्रमा का है जो चार कोस का है। दूसरा भाग राधाकुण्ड की परिक्रमा का है जो तीन कोस का है। पूंछरी गांव के बाहर एक छोटे से मंदिर में एक पहलवान की सी मूर्ति है। इसी को पूंछरी का लौठा कहा जाता है। इस विचित्र मूर्ति का रहस्य अभी तक पता नहीं चल सका है। किंवदंती के अनुसार इसे श्रीकृष्ण का गोप सखा और इस वन का रक्षक देवता माना जाता है।
अऊ ने दी थी मुग़ल सत्ता को जबरदस्त चुनौती
अऊ भरतपुर जिले का एक ऐसा ऐतिहासिक गांव है जिसने मुगल सत्ता को जबरदस्त चुनौती दी। यहां का अऊ का टीला प्रसिद्ध है। टीले के ठीक सामने आज भी वह कुंआ विद्यमान है जहां एक बार पंडित होतीराम और पांचों ने पानी पिया और आज भी वह कुआं काजी का कुआं के नाम से मशहूर है। अऊ मुगल साम्राज्य का एक शक्तिशाली थाना रहा। इसे राजाराम ने छापामार युद्ध में मुगलों से जीता। यहां के किले के दो दरवाजे थे। इसी अऊ के ऊपर एक ऐतिहासिक उपन्यास भी लिखा गया है। जो ‘अऊ का टीला’ के नाम से जाना जाता है।
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