मंजिल

डॉ. विनीता लवानिया
ये जीवन की छोटी बड़ी समस्याएं,
और सड़क का ट्रैफिक,
बिल्कुल समान है एक दूसरे के,
निकलते ही घर से,
देखती हूं दूर से,
ढेर सारे बड़े छोटे वाहन,
कैसे चल पाऊंगी?
छोटा सा मेरा साधन!
कोई कोना भी तो नहीं छूटा मेरे लिए,
ठीक जीवन की समस्याओं की भीड़ की तरह।
पर, जैसे ही बढ़ती हूं आगे,
रास्ता आने लगता है नजर,
सामने से आ रहे तीव्र वाहन
बदल लेते हैं डगर,
मुझ तक पहुंचने से पहले ही।
ठीक उनकी तरह
जो समस्याएं थी ही नहीं मेरे लिए,
आशंकाएं मात्र थीं।
तभी मेरे आगे चल रहा एक वाहन,
बाधित कर देता है मेरी गति को,
मैं होने लगती हूं विचलित,
थोड़ी सी प्रतीक्षा,
जरा सी हिम्मत, नन्ही सी आशा,
उसने धीरे से साइड दी और मैं निकल गई।
हर बड़ी समस्या रास्ता देती है,
हिम्मत और आशा यदि साथ रहती है,
मेरी गति बढ़ जाती है खुली सड़क पर,
और देखो वह मंजिल नजर आ गई,
मैं अपनी जरा सी हिम्मत,
नन्ही सी आशा के साथ,
अपना लक्ष्य पा गई,
देखो मैं विजय पा गई।
(लेखिका गवर्नमेंट गर्ल्स कॉलेज नाथद्वारा में समाजशास्त्र विषय की एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
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