‘जज सुपर संसद बनेंगे और राष्ट्रपति को निर्देश देंगे?’- उपराष्ट्रपति का न्यायपालिका पर तीखा वार

नई दिल्ली 

देश की संवैधानिक मर्यादाओं और संस्थागत संतुलन को लेकर एक बड़ा बयान देते हुए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ (Vice President Jagdeep Dhankhar) ने सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के उस ऐतिहासिक फैसले पर सीधा हमला बोला है, जिसमें राष्ट्रपति (President) को राज्यपालों (Governors) की ओर से भेजे गए विधेयकों पर 3 महीने के भीतर निर्णय लेने का निर्देश दिया गया था।

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राज्यसभा इंटर्न्स के एक समूह को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा: “कभी कल्पना नहीं की थी कि लोकतंत्र में ऐसा दिन आएगा जब राष्ट्रपति को डेडलाइन दी जाएगी और न्यायपालिका सुपर संसद की भूमिका में  होगी। ”धनखड़ ने कहा कि राष्ट्रपति का पद सर्वोच्च है, जिसकी गरिमा को इस तरह के आदेश से ठेस पहुंचती है। “हम ऐसी स्थिति नहीं बना सकते जहां भारत के राष्ट्रपति को निर्देश दिए जाएं। न्यायपालिका का काम संविधान की व्याख्या करना है, न कि कानून बनाना।”

‘अनुच्छेद 142 बना 24×7 परमाणु मिसाइल’
धनखड़ यहीं नहीं रुके। उन्होंने न्यायपालिका की ताकत पर सवाल उठाते हुए कहा कि “अनुच्छेद 142 अब लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ एक ऐसा परमाणु हथियार बन गया है, जिसे कोर्ट कभी भी, कहीं भी, इस्तेमाल कर लेता है।”

‘सुपर कोर्ट या सुपर संसद?’
उन्होंने चेतावनी दी कि “अगर जज कानून बनाएंगे, कार्यपालिका की तरह काम करेंगे और उनकी कोई जवाबदेही नहीं होगी, तो लोकतंत्र के स्तंभ डगमगाने लगेंगे। हमें न्यायिक अतिक्रमण को पहचानना और उस पर बहस करनी होगी।”

जज के घर से कैश मिलने पर भी उठाए सवाल
उपराष्ट्रपति ने हाल ही में दिल्ली के एक न्यायाधीश यशवंत वर्मा के घर से कैश मिलने की घटना को लेकर भी चिंता जाहिर की। “सात दिन तक किसी को खबर नहीं मिली? क्या यह देरी समझी जा सकती है? क्या जजों की जांच कर रही कमेटी संविधान के तहत वैध है?”

उन्होंने कहा कि केवल संसद ही ऐसी जांच के लिए अधिकृत है, और अगर कार्रवाई में देरी हुई तो यह न्यायपालिका की पारदर्शिता और जवाबदेही पर बड़ा सवाल है।

पृष्ठभूमि: सुप्रीम कोर्ट बनाम राज्यपाल बनाम राष्ट्रपति

दरअसल, यह सारा विवाद तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा विधेयकों को रोकने और राज्य सरकार की याचिका के बाद उपजा। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा था:

  • राज्यपाल को विधेयकों पर समयबद्ध निर्णय लेना होगा।
  • राष्ट्रपति के पास भेजे गए विधेयकों पर भी 3 महीने में निर्णय जरूरी।
  • राज्यपाल ‘पॉकेट वीटो’ नहीं लगा सकते।
  • अगर राज्यपाल अनावश्यक देरी करेंगे, तो उनके निर्णय की न्यायिक समीक्षा हो सकती है।

भारत के तीन प्रमुख स्तंभों – न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका – के बीच यह खींचतान अब खुलकर सामने आ गई है। सवाल यह है कि क्या अब न्यायपालिका को लगाम लगाने की मांग संसद तक पहुंचेगी? और क्या राष्ट्रपति भवन की गरिमा के सवाल पर देश में एक नई संवैधानिक बहस जन्म ले चुकी है?

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