विश्व में कोरोना के कोहराम के बीच एक आमजन के आर्तनाद को एक कवयित्री ने अपने शब्दों में किस भावपूर्ण तरीके से पिरोया है, पढ़िए इस कविता में:
पूजा कुलश्रेष्ठ
दम तोड़ती निर्बल सांसें, हैं शवों की कतार कहीं,
क्या सुनाई पड़ती तुमको, भीषण ये चीत्कार नहीं?
दहल रहा धरती का सीना, शोक के कोलाहल से,
हे! सृष्टि के परमेश्वर, अब लेते क्यों अवतार नहीं?
बचपन से ही यह कथा सुनी, दुष्ट तुमने मारे थे,
मुरली वाले सारथी से, सौ-सौ कौरव हारे थे।
प्रकट हुए स्तंभ तोड़कर, हरिण्य की छाती फाड़ी थी,
घर लाए संजीवनी जब, लक्ष्मण ने प्राण हारे थे।
हो तुम वही, हम भी यही, फिर सुनते क्यों पुकार नहीं ?
हे! सृष्टि के परमेश्वर अब लेते क्यों अवतार नहीं ?
एक घूँट में पीया हलाहल, जन-मानस की चिंता पर,
तुमने लिए बहुत रूप हैं, हर युग बढ़ती हिंसा पर।
महिषासुर के वध हेतु, दुर्गा माता का सृजन हुआ,
लंकेश संहार को चढ़ा तीर धनुष प्रत्यंचा पर ।
थोड़ी मिले कृपा अगर, क्या इतना भी अधिकार नहीं?
हे! सृष्टि के परमेश्वर, अब लेते क्यों अवतार नहीं?
करने अब मृत्यु का मर्दन, छलिया बन आना होगा,
बन रक्षक, नव जीवन का तुम को चीर बढ़ाना होगा
कलियुग में जन्मे असुर की, बाजी उल्टी पड़ जाए,
सब खेलों के रचियता, ऐसा खेल दिखाना होगा।
खूनी इस अदृश्य दैत्य का, करते क्यों संहार नहीं ?
हे! सृष्टि के परमेश्वर, अब लेते क्यों अवतार नहीं?
अज्ञानता वश भूल गए, हमने बुरे कुछ कर्म किए,
जाते देखा अपनों को, रो-रो के दण्ड भोग लिए,
हो गई जो उन भूलों को, मत देखो अब माफ करो।
झुके हुए हैं सब के मस्तक, हाथ सब ने जोड़ दिए,
दुख से पीड़ित प्रजा की, तुम सी कोई सरकार नहीं।
हे! सृष्टि के परमेश्वर अब लेते क्यों अवतार नहीं है।
सेक्टर-122, नोएडा (उत्तर प्रदेश)