संत शिरोमणि गुरु रविदास जिहोंने हिन्दू समाज को विघटन से बचाया

जयंती 

डॉ. सत्यदेव आजाद 


सिकन्दर लोदी के शासन में समूचे भारत की अस्पृश्यता अपनी चरम सीमा पर थी तथा उस समय दलित वर्ग के साथ पशुवत व्यवहार हो रहा था। ईश्वर भक्ति, वेदों का पठन-पाठन आदि पर मात्र कुछ लोगों  का अधिकार था। भारत की प्रमुख धार्मिक नगरी काशी में लगभग 620 साल पहले माता कलसी की गोद में माघ पूर्णिमा के दिन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के निकट ग्राम सीर गोवर्धनपुर में एक सुन्दर बालक ने जन्म लिया। रविवार के दिन जन्म होने के कारण बालक का नाम रविदास रखा गया। इसी बालक ने अपनी भक्ति साधना के बल पर संतों में शिरोमणि का स्थान प्राप्त किया तथा वर्ण व्यवस्था पर कड़ा प्रहार कर देश में सामाजिक क्रान्ति का शंखनाद किया और हिन्दू धर्म को विघटित होने से बचाया।

गुरु रविदास अपने बाल्यकाल से ही ईश्वर की भाक्ति में लीन रहते थे, इसी कारण इनके परिवारीजनों ने शीघ्र ही उनका विवाह भी कर दिया। परन्तु विवाह  होने पर भी उनकी दिनचर्या में कोई अन्तर नहीं आया बल्कि अपनी धर्मपत्नी को भी ईश्वर भक्ति में लीन कर दिया। गुरु रविदास ने अपने जीवनकाल में कभी भिक्षा नहीं मांगी वरन अपने साथ-साथ आगन्तुक साधु-सन्तों की सेवा भी वे अपने परिश्रम से कमाए गए धन से ही करते थे। वह जूतियों की मरम्मत कर अपनी जीविका जुटाते थे। इससे उन्होंने यह स्पष्ट कर दिखाया कि मानव गृहस्थ जीवन में रहकर भी ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।

गुरू रविदास, गुरू नानकदेव, महात्मा कबीर, संत नामदेव, सदना, सेननाई आदि सन्तों के समकालीन जैसा कि उनकी वाणियों में भी उल्लेख मिलता है।

साधुन में रविदास संत है सुपच ऋषि सौं मानिया
हिन्दू तुर्क दुई दीन बने हैं कुछ नहिं पहिचानिया ॥ (कबीर )

नीचा अन्दर नीच जात, नीच ही अंत नीच
नानक ता के संग साथ बड्यो से क्या रीष॥ (नानक )

इसी प्रकार गुरु रविदास ने अपने पदों में इनकी महिमा का गुणगान किया है। जैसे कि-

हरि के नाम कबीर उजागर,
जन्म के काटे कागर॥ (गुरु रविदास)

यों तो गुरु रविदास जी के जीवन में ऐसी  अनेक चमत्कारी घटनाओं  का उल्लेख मिलता है जिसमें उन्होंने पाखण्ड  रचने वालों  को समय- समय पर अपनी भक्ति साधना के बल पराजित किया है। उनके जीवन की प्रथम चमत्कारी घटना इस प्रकार बताई जाती है –
एक दिन एक ब्राह्मण प्रात:काल  गंगा स्नान करने जा रहे थे। वह मार्ग रविदास की झोंपड़ी  से होकर गुजरता था। इसी बीच उस की भेंट रविदास जी से हो गई। गुरू जी ने पूछा कि, पंडित जी आप गंगा स्नान करने जा रहे हो तो मेरी भी यह दो कौड़ियों की भेंट गंगा माँ को चढ़ा देना।  स्नानादि से निवृत्त होकर उस पंडित ने गुरु जी की कौड़ियों को गंगा नदी में फैंका तो गंगा  मां ने स्वयं एक सुन्दर कन्या के रूप में प्रकट होकर उन कौड़ियों को अपने हाथों में ग्रहण कर लिया तथा उस पंडित को एक स्वर्ण जनित कंगन दिया कि यह आप मेरे भक्त रविदास को दे देना।

बहुमूल्य कंगन देखकर पंडित के मन में लोभ आ गया और उसने यह कंगन काशी नरेश को जा कर दे दिया जिसे राजा ने अपनी रानी को दे दिया। रानी कंगन को देखकर यह हठ कर बैठी कि इसके साथ का दूसरा कंगन भी लाकर दो अन्यथा मैं मरण व्रत धारण कर लूंगी। इस पर राजा ने अपने दरबार में उस पंडित को बुलाया कि इस कंगन के साथ का दूसरा कंगन एक सप्ताह में लाकर दो अन्यथा तुम्हें मृत्यु दण्ड दे दिया जाएगा।

प्रति दिन वह पंडित प्रातःकाल गंगा माता की आराधना करता कि मुझे एक कंगन और दे दीजिए। परन्तु ऐसा नहीं होना था। अन्ततः उसने सारी सत्य कथा राजा को बता दी। इस पर राजा व रानी गुरू जी की कुटिया पर गए और उनसे अनुरोध किया कि वह गंगा माँ से इसके साथ का एक कंगन और दिला दें। यह सुनकर रविदास ने वहीं बैठे-बैठे गंगा माँ की आराधना की और जूतों की चमड़ी भिगोने वाली अपनी कुण्डी में हाथ डाला तो तुरन्त दूसरा कंगन भी हाथ आ गया, जिसे उन्होंने राजा-रानी को भेंट कर दिया और राजा से कहा- ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’

एक अन्य घटना में काशी के पंडितों ने राजा के दरबार में शिकायत की कि इस पावन नगरी में एक जूते-चप्पल गांठने वाला  ब्राह्मणों के पूजा पाठ में अनुचित ढंग से हस्तक्षेप कर रहा है। जबकि वर्ण व्यवस्थानुसार उसे यह अधिकार नहीं है। अतः राज दरबार में उसकी परीक्षा ली जाए। इस परीक्षा में भी गुरु रविदास ने उन पंडितों को पराजित किया जिस पर समूचे नगर में रविदास की शोभायात्रा निकाली गई। काशी नरेश भी इस यात्रा में सम्मिलित हुए।

इस प्रकार संत गुरु रविदास का यश सम्पूर्ण भारत में फैलता जा रहा था। लोग अपना गुरू बनाते जा रहे थे। राजघराने के लोग भी उन्हें अपना गुरू मान रहे थे। कहा जाता है  कि एक बार चित्तौड़ की रानी भालावाई ने भी उनकी महिमा सुनकर रविदास को गुरु धारण कर लिया। घर जाकर रानी ने मीरा बाई को भी गुरु महिमा सुनाई। मेरा  तो ईश्वर भक्ति का मार्ग दर्शन कराने वाले गुरू की तलाश में थी ही। फिर क्या था, मीरा ने भी उनसे गुरु दीक्षा ले ली जिसे उन्होंने स्वयं स्पष्ट किया है –
खोजत फिरूं भेदवा घर को कोई न करत बरवानी,
सत गुरू संत मिले रविदासा दीन्ह सुरत सहदानी,
मीरा सतगुरू देव की करे वन्दना आस,
जिन चेतन आतम कह्या  धन्न भगवन रविदास।

मीराबाई राजपूत वंश के राजघराने से सम्बन्धित थी। अतः उनके परिवारीजनों को जब यह पता चला कि मीरा ने जूते-चप्पल गांठने वाले  के एक सन्त को अपना गुरू धारण किया है तो मीरा को जान से मार डालने की योजना के अन्तर्गत दूध में उन्हें जहर पिलाया गया। परन्तु वह विष भी मीरा के प्राण न ले सका। इस अवसर पर मीरा ने कहा है –
मीरा म्हाने मारणे राणा रोप्या जाल,
विष व्यापो न बापुरो धन भगवन रविदास।

कहा जाता है कि गुरु रविदास के माता-पिता का देहान्त एक ही समय में हुआ और जब  वह अपने माता-पिता की अस्थियों का विसर्जन करने घाट पर गए तो वहां उन्हें यह कह कर अस्थि विसर्जन नहीं करने दिया कि यहां  से गंगा जल का बहाव शहर की तरफ है और उनके अस्थिया यहां विसर्जित करने से गंगा का सारा जल अपवित्र हो जाएगा। इसलिए तुम गंगा के अन्तिम घाट पर जाकर इन अस्थियों की विसर्जित करो।

गुरु रविदास ने अपने सरल स्वभाव के साथ गंगा के अन्तिम घाट पर अस्थिया विसर्जित करने के लिए जल में प्रवेश किया तो काशी नगर की जनता यह देखकर आश्चर्य चकित रह गई  कि गंगा जल का बहाव उल्टा हो गया, तभी यह कहावत कही जाती है कि-
‘उल्टी गंगा पहाड़ चढ़ी’

यद्यपि गुरू जी का मान सम्मान राजघराने तक में होने लगा था। परन्तु उनके जीवन की कुछ महान विशेषताएं थीं। जैसे सन्तों में शिरोमणि का स्थान प्राप्त हो जाने पर भी कभी भी अपनी जाती को उन्होंने नहीं छिपाया। वह सदैव अपनी वाणी में कहते थे- “जाके कुटुम्ब के सब ढेढ़सब ढौर ढ़ोबत,  फिरे बनारस आस-पासा।” उनका तो यह कथन था कि मानव जाति से नहीं अपने कर्म से महान बनता है तथा ईश्वर भक्ति और वेदों के पठन-पाठन पर समस्त मानव जाति का अधिकार है। यह किसी एक वर्ग की बपौती नहीं है। इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने आजीवन संघर्ष किया।

गुरु रविदास किसी एक इष्टदेव के उपासक नहीं थे। उनकी दृष्टि में कर्ता एक है, वही सच्चा ईश्वर है। वह ईश्वर को सर्वव्यापक व निराकार मानते थे। उन्होंने कहा कि शिव सनकादिक अंत न पाया, ब्रह्ममा खोजत जन्म गंवाया।

रविदास के जीवन काल में भारत में मुगल साम्राज्य था। रविदास के अनुयायी बढ़ते जा रहे थे। अतः अनुयायियों को यातनाएँ व लालच दिये गए कि वे इस्लाम कबूल करें। किन्तु गुरु रविदास ने हिन्दू धर्म को त्यागना तो दूर परन्तु अपने धर्म में फैली कुरीतियों का सुधार करने हेतु आन्दोलन किया। अतः यह कहने में संकोच नहीं है कि गुरु रविदास ने हिन्दू धर्म को विघटित होने से बचाया।

गुरु रविदास के देहान्त होने पर जो उनके विरोधी उच्च वर्ग के थे, उन्होंने उनका समस्त साहित्य नष्ट  कर दिया जिसके कारण उनका सम्पूर्ण जीवन काल का इतिहास आज तक अनुपलब्ध है। वाराणसी में काशी विश्वविद्यालय के निकट उनकी जन्मभूमि ग्राम सीर गोवर्धनपुर में उनके अनुयायियों द्वारा एक विशाल मंदिर तथा धर्मशाला का निर्माण कराया हुआ है जो आज एक धार्मिक स्थल के रूप  में पूज्य है। यहाँ प्रति वर्ष माघ सुदी पूर्णिमा को मेला भी लगता है।

(लेखक आकाशवाणी के सेवानिवृत्त वरिष्ठ उद्घोषक और नारी चेतना और बालबोध मासिक पत्रिका ‘वामांगी’ के प्रधान संपादक हैं। 2313, अर्जुनपुरा, डीग गेट, मथुरा (उत्तर प्रदेश)

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