खोलो द्वार…

महिला समानता दिवस

डॉ. विनीता राठौड़


सोच संकुचित इस जगत की
कैसे करें उम्मीद समता की
बेटी जन्मने पर थाली नहीं
जाती बजाई
बेटा होने पर बजा थाली
दी जाती बधाई
यहीं से प्रारम्भ हो जाती
असमानता की लड़ाई।

पीहर में कहलाती पराई बाई
ससुराल में कहलाती पराई जाई
कहां और कैसे करे वह
अपनेपन की भरपाई

विवाह की आयु में भी करते हैं भेद
इस बात का हमें बहुत है खेद
नहीं चाहती कृपा किसी की
ना ही कोई आरक्षण
चाहत है तो बस इतनी सी कि
अधिकारों का हो रक्षण

लम्बी चोटी, गोल रोटी की चिंता छोड़
प्रतिभा के बल पर करने दो होड़
हौंसलों की उड़ान पर है
बेटियों का भी हक
पूर्ण सामर्थ्य से करती हैं वे
परिश्रम अथक

उनको न देवी और न दासी का दर्जा दो
अपनी प्रतिभा का लोहा तो मनवाने दो
बंद दरवाजों पर कब से वे दे रहीं है दस्तक
अब तो खोलो द्वार, छोड़ कर उन पर शक।

(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, नाथद्वारा, राजसमन्द में प्राणीशास्त्र की सह आचार्य हैं)

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