नई दिल्ली
अब समय आ गया है कि विवेकाधीन कोटे के आधार पर सार्वजनिक संपत्तियों का आवंटन खत्म किया जाए। क्योंकि यह भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और पक्षपात को बढ़ावा देता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह एक अहम और कड़ी टिप्पणी उड़ीसा के एक मामले की सुनवाई के दौरान की।
दरअसल भुवनेश्वर विकास प्राधिकरण और आवास एवं शहरी विकास विभाग, ओडिशा सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन कुछ लोक सेवकों के खिलाफ आरोप था कि उन्होंने वाणिज्यिक परिसर जिला केंद्र, चंद्रशेखरपुर, भुवनेश्वर में प्रमुख भूखंडों को गुप्त रूप से वितरित किया। यह आरोप लगाया गया था कि सभी आरोपी व्यक्तियों ने आईपीसी की धारा 120 बी और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13 (2) के साथ पठित धारा 13 (1) (डी) के तहत अपराध किया है।
इसी मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विवेकाधीन कोटे में भूखंडों का आवंटन सत्ता में बैठे व्यक्तियों और/या लोक सेवकों की मर्जी से नहीं हो सकता है, जो विवेकाधीन कोटे में भूखंडों के आवंटन से निपट रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अब विवेकाधीन कोटे के आधार पर सार्वजनिक संपत्तियों के आवंटन को समाप्त किया जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति एमआर शाह और न्यायमूर्ति बीवी नागरत्न की पीठ ने यह टिप्पणी करते हुए क कहा कि इस तरह का आवंटन पारदर्शी होना चाहिए और निष्पक्ष और गैर-मनमाना होना चाहिए । पीठ ने कहा कि अब विवेकाधीन कोटे के आधार पर सरकारी अनुदान के आवंटन को समाप्त करने का दिन आ गया है, क्योंकि यह अनिवार्य रूप से भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और पक्षपात को बढ़ावा देता है। सरकार और/या सार्वजनिक प्राधिकरण जैसे बी.डी.ए. सार्वजनिक संपत्तियों के संरक्षक हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सार्वजनिक संपत्तियों का आवंटन पारदर्शी होना चाहिए और निष्पक्ष और गैर-मनमाना होना चाहिए। ऐसे मामलों में केवल जनहित ही मुख्य मार्गदर्शक विचार होना चाहिए। उपरोक्त सिद्धांत सर्वोत्तम या अधिकतम मूल्य प्राप्त करने के लिए है, ताकि यह सार्वजनिक उद्देश्य और सार्वजनिक हित की सेवा कर सके, ताकि प्राधिकरण और/या सरकारी खजाने को नुकसान से बचाया जा सके।
कोर्ट ने कहा कि विवेकाधीन कोटे में भूखंडों का आवंटन सत्ता में बैठे व्यक्तियों और/या लोक सेवकों की मर्जी से नहीं हो सकता है, जो विवेकाधीन कोटे में भूखंडों के आवंटन से निपट रहे हैं।
सत्ताधारी व्यक्तियों और/या लोक सेवकों की इच्छा से नहीं होना चाहिए
पीठ ने कहा कि “जब एक लोकतांत्रिक सरकार अपने विवेक के प्रयोग में प्राप्तकर्ताओं का चयन अपने बड़े पैमाने पर करती है, तो विवेक का प्रयोग निष्पक्ष, तर्कसंगत, समझदारी से, निष्पक्ष और गैर-मनमाने तरीके से किया जाना चाहिए और यह व्यक्तिपरक और निजी राय के अनुसार और/ या सत्ताधारी व्यक्तियों और/या लोक सेवकों की इच्छा से नहीं होना चाहिए। भले ही विवेकाधीन कोटे के तहत भूखंडों के आवंटन के दौरान अनुपालन के लिए दिशानिर्देश जारी किया जाता है और यह पाया जाता है कि कई बार उनका शायद ही पालन किया जाता है या विशेष परिस्थितियों के अनुरूप उनके साथ छेड़छाड़ की जाती है।
पीठ ने कहा कि इसलिए, इस तरह के विवेकाधीन कोटा को खत्म करना सबसे अच्छी बात है और सार्वजनिक संपत्तियों / भूखंडों का आवंटन सार्वजनिक नीलामी के माध्यम से होना चाहिए। यहां तक कि उस मामले में भी जहां एक विशेष वर्ग-दलित वर्ग आदि, को भूखंड आवंटित करने के लिए नीतिगत निर्णय लिया जाता है, ऐसे मामले में भी दिशानिर्देशों का कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए और जैसा कि ऊपर कहा गया है, आवंटन में निष्पक्षता और गैर-मनमानापूर्ण रवैया होना चाहिए और उद्देश्य, मानदंड/प्रक्रिया होनी चाहिए।”
उड़ीसा के मामले में यह कहा
कोर्ट ने उड़ीसा के मामले में कहा कि उन अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की जानी चाहिए जो रिश्तेदारों और/या परिवार के सदस्यों को भूखंडों के आवंटन में अवैधता के लिए प्रथम दृष्टया जिम्मेदार हैं, जिसके परिणामस्वरूप बी.डी.ए. और सरकारी खजाने को भारी नुकसान हुआ है।
अपील में, सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि मौजूदा मामले में आरोप एक दुर्भावनापूर्ण इरादे से शक्तियों के दुरुपयोग और एक आपराधिक साजिश रचकर परिवार के सदस्यों को भूखंडों का आवंटन करने और परिवार के सदस्यों को औने-पौने दाम पर प्लॉट आवंटित करके बीडीए और सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचा रहे हैं। कोर्ट ने कहा कि जिस मामले में भी एक विशेष वर्ग-दलित वर्ग आदि को भूखंड आवंटित करने के लिए नीतिगत निर्णय लिया जाता है, उस मामले में भी दिशानिर्देशों का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए।
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