जीवन की आपाधापी
डॉ. शिखा अग्रवाल
जीवन की आपाधापी में,
क्या पाया कितना छूट गया।
बचपन की मीठी यादों में,
छोटे सपने, कर में बूंदें,
गीली मिट्टी, सौंधी महकें,
छप – छप पानी, बहती नावें,
वो नभ में उड़ते कनकौए,
अब भी ललचाते बहुत मगर,
पतंग उड़ाने की चाहत पर,
भारी है कटने का डर।
वो उम्र रही ना मित्र रहे,
वो मित्र कहीं पीछे छूटे,
जो धौल जमा कर मिलते थे।
लड़ना, लड़ कर फिर मिल जाना,
खुल कर हंसना अब छूट गया।
कंक्रीट के जंगल में,
पीछे छूटी वो खुली हवा।
नन्ही खुशियां पीछे छूटी,
और छूट गए वो शौक सभी,
जिन से मिलता था सुकून कभी।
ये छद्म आवरण इज्जत के,
मन की करने से रोक रहे।
घर,बंगला, कार सभी पाए,
पर मन की कुछ भी कर ना सके।
है कंधों पर अब बोझ अधिक,
इच्छाएं बढ़ती जाती हैं।
ज्यादा पाने की कोशिश में,
चिंता – तनाव का चक्रव्यूह,
जीवन की खुशियां लील गया।
जीवन की आपाधापी में,
कुछ पाया कुछ तो छूट गया।
(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, सुजानगढ़ में सह आचार्य हैं)
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