कविता
डॉ. अंजीव अंजुम
कैसे लिख दूं धूप फागुनी, आज रंगीली है।
हरिया के छप्पर से महंगी, माचिस तीली है।।
चूल्हे की चिंगारी ने भी,
अपना दम तोड़ा।
और पतीली ने भोजन से,
हर रिश्ता छोड़ा।
सूखी रोटी आज गले में, लगे कँटीली है।
कैसे लिख दूं धूप फागुनी, आज रंगीली है।।
दिनभर आज हथौड़े ने,
पत्थर पर सिर मारा।
जब मजदूरी मांगी तो,
मालिक ने फटकारा।
फटी जेब की दुनिया उजड़ी, और पथरीली है।
कैसे लिख दूँ धूप फागुनी, आज रंगीली है।।
टूटी आस लिए हल सुख के,
बीज उगाता है।
पर सूखा और ओला उससे,
प्रीत निभाता है।
दाने बेचे फिर भी उसकी, आंख पनीली है।
कैसे लिख दूं धूप फागुनी आज रंगीली है।।
भटक रहा वह युगों-युगों से,
शक्तिमान अविरल।
धूप, पसीना, मेहनत में जो,
रत रहता अविचल।
कर्म पथ पर हरदम जिसकी, चाल नशीली है।
कैसे लिख दूं धूप फागुनी आज रंगीली है।।
(लेखक प्रधानाध्यापक एवं राजस्थान ब्रजभाषा अकादमी जयपुर की पत्रिका ब्रजशतदल के सहसंपादक हैं )
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