हो पुरुषार्थ प्रखर…

चिंतन 

डॉ. शिखा अग्रवाल


है दंभ बहुत मुझको – तुझको,
दिखती खामी सब औरों की,
खुद की कमियों का पता नहीं,
दिखलाते दर्पण दूजों को।

पढ़ना लिखना सब व्यर्थ लगे,
जब करते तंज़ ठहाकों से,
होगा कोई आहत कितना,
यह सोचें ना चिंतन करते।

खुद की कमियों को ढकने को,
अन्यों की कमियां गिनते हैं,
मिल बैठ सभी के साथ उसे,
जब तब उपहासित करते हैं।

बचपन से सुनते आए थे,
कमियां चुपचाप अकेले में,
हों बोल प्रशंसा के कोई,
तो बोलो बीच सभासद में।

पर है कलियुग की चाल यही,
सब कुछ उल्टा ही होता है,
कुछ लोग जो धर्म प्रतिष्ठित हैं,
वे मौन हुए इस तम युग में।

हालात ये भारी बहुत मगर,
जीवन को चलते जाना है,
अपने मन को मजबूत बना,
गुण को सम्मान दिलाना है।

बरखा से प्रभ मिलने पर ज्यों,
इक इंद्रधनुष बन जाता है,
गुण के सम्मानित होने पर
पुरुषार्थ प्रखर हो जाता है।

(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, सुजानगढ़ में सह आचार्य हैं)

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