यथार्थ
डॉ. सत्यदेव आजाद
यथार्थ की छैनी
सपनों को काटती है,
छांटती है
नया रूप देती है
नहीं काया बनाती है
फिर भी
समझ में नहीं आता
आत्मा क्यों कुलबुलाती है?
रेंगते कीड़े की तरह
खुशी भाग भाग जाती है
हो सकता है-शायद
यही न कि
मज्जा के कोमल स्वप्न
बज्र बन कर कैसे सहें
हथौड़े की गहराती चोटें
कैसे ठुकरा दें
दर्द की हमदर्दी
कैसे भुलादें
सान्त्वना आंसू की
तो फिर-
थोथे पन के ताने बाने से बुने
इन अभिनव आदर्शों का
हम क्या करें?
(2313, अर्जुनपुरा, डीग गेट, मथुरा (उत्तर प्रदेश)। लेखक आकाशवाणी के सेवानिवृत्त वरिष्ठ उद्घोषक और नारी चेतना और बालबोध मासिक पत्रिका ‘वामांगी’ के प्रधान संपादक हैं)
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