स्त्री मन की व्यथा…

मन 

डॉ. विनीता राठौड़


मायके आई जब पुत्री नव विवाहित
देख उस में बदलाव, पिता हुए व्यथित
छोड़ चहकना और फुदकना
सुघड़ स्त्री रूप में उसका ढलना
देख पिता हो गए हैरान
मन हो गया बड़ा परेशान
बोले पत्नी से, कितनी असहज सी है लगती
बिटिया जब से ससुराल से लौटी है

प्रतिक्रिया जब ना पाई पत्नी से
पिता हो गए आक्रोशित से
नजर तुम्हारी क्या कमजोर हो गई
दिखाई नहीं देता कि बिटिया हमारी बदल गई
छोड़ गहरा निश्वास माँ यह बोली
सुघड़ बहू बनना नहीं कोई आंख मिचौली

जब भी मायके से विदाई होती किसी बिटिया की
सहज विदाई होती मनचाहा कहने और करने की
बिटिया का दुःख तुम्हें दिया  दिखाई
मेरी सुध कभी क्यों नहीं आई?
मैं भी तो किसी की लाड़ली बिटिया थी
ना मन की कहती और ना कर पाती थी

मेरी चंचल बातों पर टोका-टोकी
टीका टिप्पणी आप सब ने बहुत की
नए घर – परिवेश और रिश्तों को निभाने की
जद्दोजहद में, मैं भी तो बहुत सहा करती थी
पिता रूप में बिटिया की पीड़ा समझी
काश! पुरूष रूप में स्त्री मन की व्यथा भी समझी होती।

(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, नाथद्वारा में प्राणीशास्त्र की सह आचार्य हैं)

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