गुजरात (Gujarat) के मेहसाणा (Mehsana) जिले का चंदानकी गांव (Chandanaki), जहां कोई घर पर खाना नहीं बनाता। कम्युनिटी किचन के जरिए बुजुर्गों के अकेलेपन से लड़ते इस अनोखे गांव की पूरी कहानी पढ़ें।
मेहसाणा
सुबह का वक्त है। चंदानकी गांव की गलियों में धुआं नहीं उठता। किसी घर से चूल्हे की आंच नहीं दिखती, न बर्तन खड़कने की आवाज़ आती है। फिर भी गांव भूखा नहीं है। यहां भूख भी साथ बैठकर लगती है और तृप्ति भी सामूहिक होती है। गुजरात के मेहसाणा जिले का यह छोटा सा गांव आज उस भारत की तस्वीर पेश करता है, जो तेजी से बदलती दुनिया में इंसानी रिश्तों को बचाने की जिद नहीं छोड़ता।
जब देश के गांवों से युवा शहरों और विदेशों की ओर निकल गए, तब चंदानकी में पीछे रह गए मां-बाप, दादा-दादी—खामोश घरों और लंबे दिनों के साथ। अकेलापन यहां सबसे बड़ी बीमारी बन चुका था। इसी खामोशी को तोड़ने के लिए गांव ने एक असाधारण फैसला लिया—अब कोई अपने घर में खाना नहीं बनाएगा। गांव की एक ही रसोई में सबका खाना बनेगा, और सब साथ बैठकर खाएंगे। यहीं से जन्म हुआ उस कम्युनिटी किचन का, जिसने चंदानकी को सिर्फ जिंदा ही नहीं रखा, बल्कि उसे एक मिसाल बना दिया।
सुबह की खामोशी के बाद दोपहर आती है। गांव की वही खास जगह—कम्युनिटी किचन—अब हलचल से भर चुकी है। बड़े भगोनों में सब्ज़ी पक रही है, रोटियां सेंकी जा रही हैं, और मसालों की खुशबू हवा में तैर रही है। यह किसी होटल या लंगर का दृश्य नहीं है। यह एक गांव का दिल है, जो हर दिन तय वक्त पर धड़कने लगता है।
चंदानकी में हर व्यक्ति महीने के सिर्फ दो हजार रुपये देता है। इसी से पूरी व्यवस्था चलती है। खाना किराए पर रखे गए कुक बनाते हैं, जिन्हें हर महीने 11 हजार रुपये की सैलरी मिलती है। थाली में सादा, संतुलित और पारंपरिक गुजराती भोजन परोसा जाता है—ताकि स्वाद भी बना रहे और सेहत भी। यहां खाने का मतलब सिर्फ पेट भरना नहीं, बल्कि दिन को एक लय देना है।
इस रसोई के साथ जुड़ा है एक एयर-कंडीशंड हॉल, जो सोलर पावर से चलता है। लेकिन इसकी सबसे बड़ी ताकत तकनीक नहीं, लोग हैं। यही वह जगह है जहां बुजुर्ग एक-दूसरे का हाल पूछते हैं, पुरानी बातें दोहराई जाती हैं, बच्चों और शहर गए बेटों की चर्चा होती है। कोई अपने दर्द साझा करता है, कोई अपनी खुशी। यहां खाना खत्म हो जाता है, पर बातचीत नहीं।
इस बदलाव की कहानी गांव के सरपंच पूनमभाई पटेल से जुड़ी है। न्यूयॉर्क में करीब 20 साल की जिंदगी के बाद उन्होंने आराम और सुविधाओं को पीछे छोड़ा और चंदानकी लौट आए। उनका मानना था कि अगर गांव बचाना है, तो पहले लोगों को जोड़ना होगा।
वे कहते हैं, “हमारा गांव एक-दूसरे के लिए जीता है। यहां कोई अकेला नहीं है।”
उनकी सोच ने धीरे-धीरे गांव की सोच बदल दी।
शुरुआत आसान नहीं थी। लोगों को यह विचार अजीब लगा—अपने ही घर में खाना न बनाना। सवाल उठे, शंकाएं हुईं। लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, असर दिखने लगा। बुजुर्गों की सेहत में सुधार हुआ। उन्हें खाने की चिंता से मुक्ति मिली। खाली वक्त बढ़ा, जिसे वे बातचीत, टहलने और सामूहिक गतिविधियों में लगाने लगे। सबसे बड़ा बदलाव यह था कि सूने घरों में अब सन्नाटा नहीं काटता था।
आज चंदानकी की यह व्यवस्था आसपास के गांवों के लिए एक मॉडल बन चुकी है। लोग दूर-दूर से इसे देखने आते हैं—यह समझने कि बिना किसी बड़ी सरकारी योजना या भारी खर्च के भी सामाजिक समस्याओं का हल निकाला जा सकता है। यहां कोई भाषण नहीं होते, कोई नारे नहीं लगते। बस रोज़ एक वक्त सब साथ बैठते हैं और खाना खाते हैं।
तेज रफ्तार जिंदगी, न्यूक्लियर परिवार और अकेलेपन के इस दौर में चंदानकी कोई क्रांति नहीं कर रहा। वह बस याद दिला रहा है कि इंसान को आखिरकार इंसान ही चाहिए। यह गांव बताता है कि कभी-कभी सबसे बड़ा समाधान बहुत साधारण होता है— एक रसोई, एक थाली और साथ बैठकर जीने का फैसला।
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