खेल तो आखिर यही चलता है…

गरमी
जब
करने लगती है
भारी जुल्म

हंसी जिंदगी की सरगम…

जब भी मन पर छाए उदासी
खुद से ही कर लेना हाँसी
हंसी जिंदगी की सरगम है

लिख ही गई दर्द से उपजी एक और रचना…

उन आँखों में बसा
घनघोर अँधेरा
छिपा हुआ था
मुस्कुराहट के

शब्द सो गए मौन ओढ़कर…

आवाज बांधकर
जंजीरों से
शब्द सो गए

काश! इन जख्मों को कोई चीख मिल पाती

पलकों की कोर से ढलकते
उस से पहले
रोक दिया उसने

धूप का इक नन्हा कतरा…

धूप का इक नन्हा कतरा
रोज सुबह
मेरे घर के अहाते में