कविता
सीए. विनय गर्ग
जिंदगी ऐसे ही गुजर जाएगी,
गिले शिकवे करते करते,
बचे हैं लम्हे जो भी जिंदगी के,
आओ क्यूँ न गुजारें उन्हें हँसते हँसते।।
कभी मैं खफा हो जाऊं तो तुम मना लिया करना,
और जो तुम नाराज हो गए कभी,
तो हम मना लेंगे।।
जिंदगी चार दिन की बाकी है,
नहीं रखा है कुछ रूठने मनाने में,
आओ साथ चलते हैं जिंदगी के हँसी सफर पर,
कुछ नहीं रखा है इक दूजे को नीचा दिखाने में।।
गुरुर तो उन महलों का भी न रहा,
जो खड़े थे सीना ताने – मजबूत पत्थरों की नीवों पर।
फिर हमारी तो औकात क्या है,
हम तो खुद शीशे के घरों में रहते हैं।।
क्यूँ पाले हो मन में ये अहम ये अहंकार इतना,
अहम तो अच्छे-अच्छों का न रहा।
जब समय बदलता है दोस्तो,
उसे बेरहमी से टूटते हम सबने देखा है।।
छोड़ो ये गुरुर, ये अहम और ये अहंकार दोस्तो,
न हांसिल होगा इनसे जिंदगी में कुछ भी दोस्तो।
चलो, बन जाते हैं फिर से वही अलमस्त दोस्तो,
आओ, बन जाते हैं फिर से वही अलमस्त दोस्तो।।
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