लघु कथा
डॉ. शिखा अग्रवाल
आज सुबह जैसे ही उमा चाय पीने बैठी उसका मोबाइल बज उठा। भाभी का फोन देख कर उसे चिंता हुई। दो तीन दिन से भाई रमन की तबियत ठीक नहीं थी। फोन उठाते ही भाभी रो पड़ीं, ” उमा तुम्हारे भैया हमें छोड़ गए ” ‘ इतनी तो तबियत खराब नहीं थी ‘ उसने कहना चाहा पर शब्द गले में ही अटक गए। चाय को ऐसे ही छोड़ कर वो जाने के लिए बैग लगाने लगी।
आइए पुराने जमाने को याद करते हैं…
रमन भैया, उमा के लिए पिता समान थे। अपने पिता की तो बहुत धुंधली सी यादें ही उसके जहन में हैं। बीमार और खांसी से बेदम होते पिता। उमा जब छठी क्लास में थी, तभी वे इस दुनिया से विदा हो गए थे। ‘ अब घर कैसे चलेगा’ यह सोच कर जब मां की रातों की नींद उड़ गई थी तब बड़े भाई रमन, पढ़ाई के साथ ट्यूशन कर के मां का हाथ बंटाने लगे। मां ने भी पहले से ज्यादा कपड़े सिलने शुरू कर दिये थे। रमन भैया ने पैसों की तंगी के चलते अपना इंजीनियरिंग का सपना छोड़ दिया।
पढ़ाई में होशियार उमा को बारहवीं के बाद रमन ने जिद करके मेडिकल के लिए एंट्रेंस एग्जाम दिलाया और जब उसका एडमिशन मेडिकल कॉलेज में हुआ तो उमा के बहुत मना करने के बाद भी भाई ने कर्ज लेकर उसे डॉक्टर बनाया, योग्य वर देख कर पहले उसकी शादी की और फिर खुद शादी की थी। “मेरे लिए तो रमन भैया पितातुल्य थे, एक वट वृक्ष की तरह, जिनकी शीतल छांव मुझे इस मुकाम तक ले आई। हर परेशानी में मेरे साथ खड़े हो कर हिम्मत दी, मेरे लिए अपनी पढ़ाई का सपना छोड़ कर, मेरी हर छोटी बड़ी आवश्यकता का ध्यान रखते हुए रमन भैया ने पिता समान सारी जिम्मेदारी निभाई। भैया के इस दुनिया से जाने से लग रहा है जैसे आज मेरे सिर से पिता का साया उठ गया और मैं अनाथ हो गई हूं ” कहते हुए उमा, भाभी के गले लग कर रो पड़ी।
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(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, सुजानगढ़ (चूरू) की सेवानिवृत्त सह आचार्य हैं)
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