दादा जी, माफ कर देना …

लघुकथा 

 डॉ. शिखा अग्रवाल 


श्राद्ध पक्ष शुरू हो गए थे। घर में बड़ी श्रद्धा से पितरों के लिए श्राद्ध किए जा रहे थे। उस दिन दादा जी के श्राद्ध पर सुबह से उनकी पसंद का खाना बन रहा था। सुरभि को बार – बार याद आ रहा था कि जब तक दादा जी इस दुनिया में थे तब तक उनकी पसंद – नापसंद का कभी ख़्याल नहीं रखा गया। यहां तक कि उन्हें ना तो समय पर खाना दिया जाता था ना ये ध्यान रखा जाता था कि अपने बिना दांतों के मुंह से वो खाना कैसे चबाएंगे। 

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सुरभि ने कई बार दादा जी को गाढ़ी दाल या सब्जी में गिलास से पानी उंडेल कर, उस में रोटी भिगो कर खाते हुए, अपनी आंखों से देखा था। पर अपनी मम्मी के डर से वह कभी कुछ कह नहीं पाई।  तेज भूख लगने पर दादा जी चुपचाप सुरभि को रुपए देकर बिस्किट का पैकेट मंगवा लेते थे और उसे पानी में डुबो – डुबो कर छुपते- छुपाते खाते थे। ऐसे समय में सुरभि ने कई बार उनके लिए चौकीदार की भूमिका निभाई थी। 

‘बुढ़ापे में तो व्यक्ति सनक जाता है, इसलिए उनसे कोई नहीं डरता बल्कि उनकी उपेक्षा की जाती है क्योंकि उन पर ज्यादा ध्यान देने पर उनकी सेवा टहल करनी पड़ेगी। पितरों के श्राप से सभी डरते हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि पितर दोष से केवल इस पीढ़ी को ही नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी कष्ट भोगना पड़ता है’ इसी गलत मानसिकता के बारे में सोच कर सुरभि का मन परेशान था। 

वहीं सुबह से पूरा घर देशी घी की सुगंध से महक रहा था। पंडित जी की बड़ी सी थाली में मेवों भरी केसर की खीर, तीन तरह की सब्जियां, पूड़ी, कचौरियां,  दही – बड़े, इमरती के साथ लड्डू आग्रहपूर्वक परोसे जा रहे थे। ” बहुत नरम पूड़ी है पंडित जी” “एक कचौरी और लीजिए पंडित जी, हमारे पिताजी को बहुत पसंद थी” जैसे शब्द सुरभि के दिमाग में हथौड़े की तरह बज रहे थे। वह रुलाई रोकते हुए भाग कर कमरे में आ गई और बुदबुदाई,” दादा जी, हमें माफ कर देना।”

(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, सुजानगढ़ (चूरू) की सेवानिवृत्त सह आचार्य हैं)

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