अनमोल बेटियां…

कविता 

डॉ. विनीता राठौड़


कैसे कोई कर सकता है
बेटियों का दान?
नहीं हैं वे कोई वस्तु,
ना ही कोई परिधान
हर एक बेटी होती है
अपने घर की शान
सदैव बढ़ाती हैं
अपने माँ-बाबा का मान

भक्ति-शक्ति, त्याग-तपस्या से
होती वे परिपूर्ण
अपने समर्पण से कर देती
पति का घर सम्पूर्ण
होती हैं अनमोल बेटियां,
नहीं लगाओ इनका  मोल
दो-दो घर को खुशनुमा बनाते
इनके प्यारे मीठे बोल

कैसे कोई कह सकता है
बेटी को पराया धन?
नहीं कमाया गया है इसको,
दिया है उसे भी जनम
जिस घर में जन्म लिया,
वहां बसता है उसका मन
जिस घर में ब्याह दिया,
सर्वस्व करती अपना अर्पण

हंसी ख़ुशी निभाती साथ
जिस संग लगाए फेरे सात
पवित्र बंधन में बंध कर करती,
प्रेम-प्रीत की बरसात
शीघ्र कुशलता से कर लेती,
नए रिश्तों को आत्मसात

कैसे विदाई होते ही,
बन जाती
अपने घर में ही मेहमान?
जिस घर आती
वे भी पराई जाई कह,
देते नहीं यथोचित मान
हम सब की है यह जिम्मेदारी,
अब और नहीं रहे यह जारी
कभी न समझे वो
स्वयं को अबला और पराई नारी

हम निभाएँ अपनी भागीदारी
और दिलाएं उसे विश्वास
दोनों घर हैं उसके अपने,
कराएं उसे अहसास
ससुराल में भी कोई न कर पाए
उसका उपहास
उसकी प्रतिष्ठा का
कभी न होने दें ह्रास।

(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, नाथद्वारा, राजसमन्द में प्राणीशास्त्र की सह आचार्य हैं)




 

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